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अमरज्योति
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हो गई। भिक्ष के गौर-कांति से दीपित चन्द्रमा के समान सुकुमार मुख-मंडल के भीतर से अमित सौन्दर्य प्रतिबिम्बित हो रहा था। वासवदत्ता क्षणभर विमुग्ध भाव से देखती रही, फिर लज्जाविमुक्त हो भिक्ष का हाथ पकड़ते हुए बोली- “रूपकुमार ! राजकुमारों के लिए चिर दुर्लभ मेरे भवन को पवित्र करिए। भगवान ने इस अनिन्द्य सौन्दर्य के लिए यह कठोर पृथ्वी नहीं, सुकुमार पुष्प शैया निर्मित की है।"
भिक्ष ने अपना हाथ खींचते हुए कोमलता से कहा"सुमुखि ! अभी तुम लौट जाओ। मेरे आने का उपयुक्त समय अभी नहीं है, समय पर मैं खुद तुम्हारे पास चला आऊँगा।"
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ठीक एक वर्ष बाद एक निर्जन पथ पर भिक्ष उपगुप्त के स्थिर चरण तेजी से बढ़े जा रहे थे। आम्रवन पार कर एक पीपल के पेड़ के नीचे चरण ठिठक गये। सामने एक एक प्रौढ़ा रमणी चेचक के फफोलों से लदी बेसुध-सी पड़ी थी, आहत हरिणी-सी। भिक्षु ने उसके मुख पर शीतल जल छिड़का। नारी ने आँखें खोली और कराहती वाणी में बोली-करुणागार! कौन हैं आप ? नगर वासियों ने छूत के भय से मुझे यहां नगर की सीमा के बाहर फेंक दिया है, आपने इस समय पर इतनी असीम दया की है ?"
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