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आत्म-वंचना प्रकृति, जिसे धर्मशास्त्र नियति या कर्म कहते हैं, सबसे अधिक जागरूक और निष्पक्ष न्याय करती है। मनुष्य का अन्तरंग उसका साक्षी होता है, उसकी बुद्धि और भाग्य उसे अपने आप उसका दंड देते हैं। ___ मकड़ी जैसे अपने श्लेष्म तंतुओं से जाल बुनती है और स्वयं ही उसमें फंस कर तड़फड़ाने लगती है, कभीकभी जीवन में यही स्थिति मनुष्य की, स्वयं हमारी भी होती है। आगम में कहा है- सएण विप्पमाएण,
पुढो वयं पकुव्वह । मनुष्य अपनी ही भूलों से, विचित्र स्थितियों में फंस जाता है, अपने ही छल-छद्म से ठगा जाता है। नियति उसे कभी माफ नहीं करती। और जब भाग्य की क र गति उसे उसके ही फैलाए हुए जाल में फंसाकर उस पर
१ आचारांग १२।६
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