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प्रतिछाया जैन धर्म का मूल सूत्र है-"अप्पा कत्ता वि कत्ता य"" मनुष्य अपने सुख दुःख का कर्ता स्वयं ही है। जब तक आत्म ज्ञान का यह रहस्य उसके हाथ नहीं लगता, वह कस्तूरिया मृग की भांति अपने सुख दुःख के निमित्त इधर-उधर खोजता हुआ भटकता रहता है, और आखिर एक दिन अपनी ही प्रतिध्वनि को शत्र की हुकार समझ कर भयभीत हो उठता है, अपनी ही प्रतिछाया को दुश्मन को आकृति समझकर उससे युद्ध करने लपक पड़ता है।
राजा अमोघभूति ने एक रात भयंकर दुःस्वप्न देखा। "राज प्रासाद को चारों ओर से शत्र सेना ने घेर लिया है। हाथ में नंगी तलवार लिए दुश्मन राजा राजप्रासाद के गवाक्ष से ऊपर महलों में प्रवेश कर चुका है और राजा की शय्या की ओर बढ़ा आ रहा है।
१ उत्तराध्ययन सूत्र २०।३७
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