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अनुश्रुत श्रुतियाँ भय और आवेश में विक्षिप्त हुआ राजा सहसा खड़ा हो गया। सिरहाने रखा कृपाण हाथ में लेकर शत्रु को ललकारने लगा। देखा-शत्र, क्रोधोन्मत्त हुआ हाथ में खड्ग लिए सामने खड़ा है। राजा ने झपट कर एक प्रहार किया तो दीवार का शीशा चूर-चूर होता हुआ जैसे राजाकी मूर्खता पर अट्टहास कर उठा।
राजा का स्वप्न भंग हो गया। प्रज्ञा चक्ष खुले'ओह ! मैं तो अपनी ही प्रतिछाया से लड़ने को आतुर हो उठा, मैंने अपनी ही प्रतिकृति पर प्रहार किया........ राजा चिन्ता की गहराई में उतर गया।।
सचमुच मनुष्य अपनी प्रतिछाया से ही प्रताड़त होकर उद्विग्न, व्यथित और भयत्रस्त हो रहा है। .
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