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अनुश्र त श्र तियाँ है और तू उसकी गंध में पागल बना वन-वन भटक रहा है ?
कस्तूरी मृग नाभि बसत है
वन-वन फिरत उदासी ! सचमुच अमरत्व का अमृत फल तेरे हा अन्तःकरण में छिपा है और तू उसे खोजने दमतोड़ दौड़ लगा रहा है ?
एक बार देवताओं की सभा में मनुष्य के अपराजित पुरुषार्थ की चर्चा चली। भयत्रस्त वाणी में सब ने आशंका व्यक्त की-"जिस गति से मनुष्य प्रगति के अजित दिगन्तों पर विजय ध्वज फहरा रहा है, उसे देखते लगता है एक दिन स्वर्ग की भूमि पर भी वह अपने विजयी चरण रख देगा।"
देवताओं की भय विचलित मनोदशा देखकर देवर्षि ने सुझाव दिया-"उसका अमरत्व छीन लेना चाहिए।"
"पर उसे छिपाएँ कहाँ ?"-आशंका भरी वाणी में देवताओं ने पूछा-पर्वत शिखरों की ऊंचाई को उसने छु लिया है, समुद्रों की गहराई भा नापने का सामर्थ्य उसमें हैं ! पृथ्वी के अतल गर्भ में भी वह पहुँच सकता हैआखिर ऐसा कौन सा स्थान है, जहां उसका अमरत्व उससे छुपकर रह सकता है ?"
देवताओं की शंका का निराकरण करते हुए प्रजापति ने कहा- "एक ऐसा स्थान भी है ?''
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