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अमरता की खोज
मनुष्य ! तू अक्षय अनन्त है, अमृतपुत्र है, ज्योतिस्वरूप विराट चैतन्य है। फिर दीन-हीन क्यों ? अमर्त्य होकर अमरता के लिए मारा-मारा क्यों भटक रहा है ? तू तेजस्वी है, दीप्तिपुज है, अविनाशी और अमृत है
___ "तेजोऽसि, शुक्रमसि, अमृतमसि !""
तेरे अन्तर अन्तराल में प्रतिपल आनन्दवर्षी, नन्दन कानन-सी शीतल-सुगंधित पवन बह रही है । तेरे अन्तः करण मे ही मनोवांछित फल प्रदायिनी कामधेनु बंधी है
"अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नंदणं वणं ।"
तेरी आत्मा ही कामधेनु है, तेरा आत्मा ही नन्दन वन है। तेरे अन्तरंग में झांक कर देख, ज्ञान-दर्शन-की पवित्र निर्मल ज्योति जगमगा रही है।
तू अपने को विसरा कर भटक रहा है-कबीरदास जी ने तुझे पुकारा है-कस्तूरी तेरे अन्तःकरण में छिपी
यजुर्वेद ११३१
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