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________________ जनयोग : एक अनुशीलन | ५५ का निर्माण किया। इन ग्रन्थों में जैन परम्परा के अनुसार योग साधना का विश्लेषण करके ही सन्तुष्ट नहीं हुए, अपितु पातंजल योगसूत्र में वर्णित योग साधना और उनकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन योग साधना की तुलना की है और उसमें रहे हुए साम्य को बताने का प्रयास किया है।' आचार्य हरिभद्र के योग ग्रन्थों की निम्न विशेषताएं हैं : (१) कौन साधक योग का अधिकारी है और कौन योग का अनधिकारी है । (२) योग का अधिकार प्राप्त करने के लिए पहले की जो तैयारी अपेक्षित है, उस पर चिन्तन किया है ? (३) र ग्यता के आधार पर साधकों का विभिन्न दृष्टि से विभाग किया है और उनके स्वरूप और अनुष्ठान का भी प्रतिपादन किया गया है । (४) योग साधना के भेद-प्रभेदों और साधन का वर्णन है । योगबिन्दु में योग के अधिकारी के अपुनर्बन्धक, सम्यक्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति ये चार विभाग किये और योग की भूमिका पर विचार करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय ये पाँच प्रकार बताये । योगदृष्टि समुच्चय में ओघ दृष्टि और योग दृष्टि पर चिन्तन किया है । इस ग्रन्थ में योग के अधिकारियों को तीन भागों में विभक्त किया है । प्रथम भेद में प्रारम्भिक अवस्था से विकास की अन्तिम अवस्था तक की भूमिकाओं के कर्म-मल के तारतम्य की दृष्टि से मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा-ये आठ विभाग किये हैं । ये आठ विभाग पातंजल योग सूत्र के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तथा बौद्ध परम्परा के खेद, उद्वेग आदि अष्ट पृथक् जन चित्त दोषपरिहर और अद्वेष, जिज्ञासा आदि अष्ट योग गुणों को प्रकट करने के आधार पर किये गये हैं । योग शतक में योग के निश्चय और व्यवहार-ये दो भेद किये गये हैं । योगविशिका में धर्म साधना के लिए की जाने वाली क्रियाओं को योग कहा है और योग की स्थान, ऊर्जा, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन ये पांच भूमिकाएँ बतायी हैं। __ आचार्य हरिभद्र के पश्चात् जैन योग के इतिहास के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैंआचार्य हेमचन्द्र जिन्होंने योगशास्त्र नामक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का निर्माण किया है। इस ग्रन्थ में पातंजल योग सूत्र के अष्टांग योग की तरह श्रमण तथा श्रावक 1 समाधिरेषु एवान्यः संप्रज्ञोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्षरूपेण वृत्यर्थं ज्ञानतरस्तथा ॥ असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधि गीयते परैः। निरुद्धशेष वृत्यादि तत्स्वरूपानुरोधक ।। -योगबिन्दु ४१६-४२०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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