SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ श्वासोच्छ्वास निरोध की साधना प्रारम्भ की थी। किन्तु समाधि प्राप्त न होने से उसका परित्याग कर अष्टांगिक मार्ग को अपनाया। अष्टांगिक मार्ग में समाधि के ऊपर विशेष बल दिया गया है। समाधि या निर्वाण प्राप्त करने के लिए ध्यान के साथ अनित्य भावना को भी महत्त्व दिया है । तथागत बुद्ध ने कहा-"भिक्षो ! रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य है, विज्ञान अनित्य है । जो अनित्य है वह दुःखप्रद है । जो दुःखप्रद है वह अनात्मक है । जो अनात्मक है वह मेरा नहीं । वह मैं नहीं हूँ। इस तरह संसार के अनित्य स्वरूप को देखना चाहिए।" जैन आगम साहित्य में योग शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु योग शब्द का अर्थ जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध परम्परा में हुआ है उस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । वहाँ योग शब्द का प्रयोग मन, वचन, काया की प्रवृत्ति के लिए हुआ है । वैदिक और बौद्ध परम्परा में जिस अर्थ को योग शब्द व्यक्त करता है उस अर्थ को जैन परम्परा में तप और ध्यान व्यक्त करते हैं। ध्यान का अर्थ है-मन, वचन और काया के योगों को आत्मचिन्तन में केन्द्रित करना। ध्यान में तन, मन और वचन को स्थिर करना होता है । केवल सांस लेने की छूट रहती है, सांस के अतिरिक्त सभी शारीरिक क्रियाओं को रोकना अनिवार्य है । सर्वप्रथम शरीर की विभिन्न क्रियाओं को रोका जाता है । वचन को नियत्रित किया जाता है और उसके पश्चात् मन को आत्म-स्वरूप में एकाग्र किया जाता है । प्रस्तुत साधना को हम द्रव्य-साधना और भाव-साधना कह सकते हैं । तन और वचन की साधना द्रव्य-साधना और मन की साधना भाव-साधना है। जैन परम्परा में हठयोग को स्थान नहीं दिया गया है और न प्राणायाम को आवश्यक माना है । हठयोग के द्वारा जो नियन्त्रण किया जाता है उससे स्थायी लाभ नहीं होता, न आत्म-शुद्धि होती है और न मुक्ति ही प्राप्त होती है । स्थानांग, समवायांग, भगवती, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में ध्यान के लक्षण और उनके प्रभेदों पर प्रकाश डाला है। आचार्य भद्रबाह स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में ध्यान पर विशद विवेचन किया है । आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान पर चिन्तन किया है । किन्तु उनका चिन्तन आगम से पृथक नहीं है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने "ध्यानशतक" की रचना की । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जैन ध्यान पद्धति के मर्मज्ञ ज्ञाता थे। उन्होंने ध्यान की गहराई में जाकर जो अनुभव का अमृत प्राप्त किया उसे इस ग्रन्थ में उद्धत किया है। आचार्य हरिभद्र ने जैन-योग पद्धति में नूतन परिवर्तन किया। उन्होंने योग बिन्दु, योगदृष्टि-समुच्चय, योगविशिका, योगशतक और षोडशक प्रभृति अनेक ग्रन्थ 1 अंगुत्तरनिकाय ६३ । ३ संयुक्तनिकाय ५-१०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy