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पौराणिक युग में ईश्वर पौराणिक युग में उस परब्रह्मतत्व की विविध नामों से उपासना प्रारम्भ हुई। इस प्रकार वैदिक काल से पुराणकाल तक ईश्वर सम्बन्धी जो चिन्तन हुआ और जो उसका स्वरूप निश्चित हुआ, उपर्युक्त पंक्तियों में संक्षेप में उसकी झाँकी प्रस्तुत की गयी है।
वैदिक साहित्य के आधार पर ईश्वर सम्बन्धी दिग्दर्शन के पश्चात् अब विभिन्न दर्शनशास्त्रों को भी टटोल लेना आवश्यक है । अतएव अब यह देखना है कि दर्शनशास्त्रों में ईश्वर के विषय में क्या अवधारणाएँ और मान्यताएँ हैं ?
न्याय और वैशेषिक दृष्टि से ईश्वर __ भारतीय दर्शनों में न्याय और वैशेषिक दर्शन चेतन और अचेतन के सम्बन्ध में बहुत्ववादी दृष्टिकोण रखते हैं । वैशेषिक दर्शन के आद्य प्रणेता कणाद ने ईश्वर के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से विचार चर्चा नहीं की है। किन्तु प्रशस्तपाद ने, जिन्होंने वैशेषिक दर्शन पर भाष्य लिखा है, महेश्वर को सृष्टि के कर्ता और संहत्ता के रूप में विस्तार से चित्रित किया है। उन्होंने अपने भाष्य में यह भी बताया है कि महेश्वर शुभाशुभ कर्म के अनुसार सर्जन भी करता है और संहार भी करता है ।
न्यायदर्शन के निर्माता 'गौतम' हैं । उनका अपर नाम 'अक्षपाद' भी है। उन्होंने 'न्यायसूत्र' में ईश्वर की चर्चा बहुत ही संक्षेप में की है। पर 'न्याय सूत्र' के भाष्यकार 'वात्स्यायन' ने ईश्वर की चर्चा बहुत ही विस्तार के साथ की है। भाष्य के समर्थ व्याख्याकार उद्द्योतकर और टीकाकार वाचस्पति मिश्र हैं, उन्होंने प्रबल प्रमाण और तर्क देकर ईश्वर के स्वतन्त्र व्यक्तित्व और कृतित्व की संस्थापना की।
वात्स्यायन, उद्योतकर और वाचस्पति मिश्र ने केवल ईश्वर की सृष्टि के निर्माणकर्ता और नियन्ता के रूप में ही संस्थापना नहीं की, अपितु उन्होंने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ईश्वर जगत् को बनाने वाला है, किन्तु वह कर्म जीव सापेक्ष है । यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि कितने ही दार्शनिक चिन्तक ईश्वर को कर्ता मानते थे और उसकी संस्थापना करने के लिए वे प्रबल तर्क प्रदान करते थे । कोई अनुमान के आधार पर सिद्ध करते थे तो कितने ही दार्शनिक आगम के आधार को प्रमुखता देते थे । यदि उससे भी अपने मन्तव्य की पुष्टि नहीं
1 प्रशस्तपादभाष्यगत सृष्टि संहारप्रक्रिया। २ ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् । न पुरुष काभावे फलानिष्पत्तेः तत्कारितत्वादहेतुः ।
'-न्यायसूत्र-४, १, १६-२१.
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