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२२ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
होती देखते तो अन्य साधक प्रमाणों को भी उपस्थित करते थे ! नकुलीश, पाशुपत और शवों में इस विषय में एकमत नहीं था। सारांश यह है कि न्यायदर्शन मुख्य रूप से ईश्वर के कर्तृत्व-स्थापना के सम्बन्ध में अनुमान पर आधृत है । इस सत्य-तथ्य को उद्द्योतकर और वाचस्पति मिश्र ने भी स्वीकार किया है।
न्याय और वैशेषिक दर्शन ने ईश्वर की एक स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में संस्थापना की और साथ ही उसे कर्ता और नियन्ता के रूप में भी चित्रित किया है। इस सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण भी किया गया । न्याय और वैशेषिक दर्शन के चिन्तकों में 'उदयन' प्रबल प्रतिभा के धनी, विज्ञ थे । उन्होंने ईश्वर की संस्थापना के लिए ही "न्याय कुसुमांजलि' ग्रन्थ की रचना की। उन्होंने अपनी दृष्टि से अनीश्वरवादियों के तर्क का खण्डन किया है और महेश्वर को कर्ता और नियन्ता के रूप में प्रस्तुत किया है ।
सांख्य और योग की दृष्टि से ईश्वर
भारतीय दर्शनों की परम्परा में सांख्य और योग दर्शन का भी अपना गौरवपूर्ण स्थान है । सांख्य और योग दर्शन के आद्य प्रवर्तक महर्षि कपिल और पतंजलि माने जाते हैं। सांख्य और योग दर्शन में चौबीस या पच्चीस तत्व ही नहीं माने गये हैं, अपितु छब्बीस तत्व भी माने हैं। जैसे सांख्य और योग में स्वतन्त्र पुरुष-बहुत्व का स्थान है । स्वतन्त्र रूप से पुरुष विशेष ईश्वर का भी स्थान है। मूर्धन्य मनीषियों का अभिमत है कि पातंजल सूत्र से पूर्व भी योग मार्ग के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ थे। वे हिरण्यगर्भ' या स्वयंभू से नाम से योग मार्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । उस योग मार्ग में ईश्वर का सर्वतन्त्र स्वतन्त्र स्थान था । किन्तु पूर्ण निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि पुरुष विशेष रूप ईश्वर को केवल साक्षी, उपास्य या जप रूप में ही वे मानते थे या न्याय, वैशेषिक दर्शन के समान ईश्वर को स्रष्टा, नियन्ता और संहर्ता के रूप में मानते थे । वर्तमान में पतंजलि का जो योग-सूत्र उपलब्ध है. उसके आधार से यह साधिकार कहा जा सकता है कि पहले योग परम्परा में ईश्वर का स्थान साक्षी या उपास्य के रूप में रहा है। किन्तु इसके पश्चात् योग-सूत्र के भाष्यकार ने ईश्वर को पतितों के उद्धारक के रूप में चित्रित किया है । भाष्यकार का मंतव्य है कि ईश्वर भूतों पर अनुग्रह करता है और विश्व के समस्त प्राणियों को ज्ञान की निर्मल गंगा बहाकर और धर्म से जीवन को रंग कर
1 Origin and Development of Samkhya System of Thought,
p. 49. 2 Buddhist Logic, Vol. I, pp. 17-20. 3 ईश्वर प्रणिधानाद्वा ।
-योगसूत्र-१, २३-६
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