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२० | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ हुआ । उपनिषद् काल में दार्शनिक चिन्तन मुख्य रूप से हुआ। परमतत्व के स्वरूप
और उसकी उपलब्धि के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया । हम यह कह सकते हैं कि सुदीर्घ काल तकं ऋषि-मुनियों ने जो चिन्तन किया, उस चिन्तन को उपनिषदों में मूर्त रूप दिया गया है । उपनिषद् युग में ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड थे दोनों पृथक्-पृथक् हुए । इसके पूर्व ज्ञानकाण्ड यदि था तो वह नगण्य-सा था।
उपनिषद् युग में वेदकालीन बहुदेवता सम्बन्धी जो विचार गहराई से पनप रहे थे उनके स्थान पर एक सर्वशक्तिमान, अनन्त, नित्य, अनिर्वचनीय, स्वयंभू के रूप में ईश्वर की कल्पना की गयी। वह स्वयंभू विश्व का स्रष्टा, रक्षक और संहारकर्ता माना गया । उस स्वयंभू का वर्णन करते हुए उपनिषद्कारों ने लिखा—वह ज्योतिर्मय है, विश्व का जीवन है, अद्वितीय है । वही एक अर्चनीय है ।
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य से पूछा गया- "देव कितने हैं ?'' उन्होंने उत्तर में 'एक देव' बताया।
पुन: जिज्ञासा प्रस्तुत की गयी-अग्नि, वायु आदित्य, अन्न, रुद्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन है ?
उत्तर में उन्होंने कहा-"ये सभी मुख्य रूप से सबसे ऊँचे, अमर, निराकार ब्रह्म के ही विविध रूप हैं । मानव चाहे तो इन रूपों का भी ध्यान कर सकता है और चाहे तो इनका परित्याग भी कर सकता है ।
ब्रह्म का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा है-ब्रह्म के बिना न आग जल सकती है और न वायु एक तृण को भी उड़ा सकती है। ब्रह्म के भय से ही आग जलती है, सूर्य चमकता है, वायु प्रवाहित होती है, मेघ बरसता है और सभी अपनेअपने कर्तव्य का पालन करते हैं । इस प्रकार एकेश्वरवाद की संस्थापना हुई।
___ उपनिषद् युग के अन्तिम चरण में रुद्र और विष्णु, जो वेदकाल में गौण देवता माने गये थे, उनका भी प्राबल्य बढ़ा । ये देव पुराण युग में शिव और विष्णु के रूप में परम तत्व के स्थान पर प्रतिष्ठापित हुए । पर ब्रह्म तत्त्व एक होने पर भी विभिन्न नामों से वह जाना पहचाना गया ।
1 बृहदारण्यकोपनिषद्, ३ : ६-१ । ३ (क) मैत्रायणी उपनिषद्, ४ : ५-६ ।
(ख) मुण्डकोपनिषद् १-१-१ । (ग) तैत्तिरीय-१:५।
(घ) बृहदारण्यक-१ : ४-६, १ : ४-७ तथा १ : ४-१०। ३ तैत्तिरीयोपनिषद् ।
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