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१४ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
जैन दर्शन ने इन चार सत्यों को (१) बन्ध (२) आस्रव (३) मोक्ष (४) संवर के रूप में प्रस्तुत किया है।
बन्ध-शुद्ध चैतन्य के अज्ञान से राग-द्वेष प्रभृति दोषों का परिणाम है, इसे हम हेय अथवा दुःख भी कह सकते हैं ।
आस्रव का अर्थ है जिन दोषों में शुद्ध चैतन्य बंधता है या लिप्त होता है, इसे हम हेयहेतु या दुःख समुदय भी कहते हैं।
__ मोक्ष का अर्थ है--सम्पूर्ण कर्म का वियोग । इसे हम हान या दुःखनिरोध कह सकते हैं।
संवर- कर्म आने के द्वार का रोकना यह मोक्ष मार्ग है । इसे हम हानोपाय या निरोध मार्ग भी कह सकते हैं ।
सामान्य रूप से चिन्तन करें तो ज्ञात होगा कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं ने चार सत्यों का माना है । संक्षेप में चार सत्य भी दो में ही समाविष्ट किये जा सकते हैं :
(१) वंध, जो दुःख या संसार का कारण है, और (२) उस बंध को नष्ट करने का उपाय ।
प्रत्येक आध्यात्मिक साधना में संसार का मुख्य कारण अविद्या माना है । अविद्या से ही अन्य राग-द्वेष, कषाय-क्लेश आदि समुत्पन्न होते हैं । आचार्य पतंजलि ने अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों का निर्देश कर अविद्या में सभी दोषों का समावेश किया है । उन्होंने अविद्या को सभी क्लेशों की प्रसव भूमि कहा है। इन्हीं पाँच क्लेशों को ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में पांच विपर्यय के रूप में चित्रित किया है । महर्षि कणाद ने अविद्या को मूल दोष के रूप में बताकर उसके कार्य के रूप में अन्य दोषों का सूचन किया है। अक्षपाद अविद्या के स्थान पर "मोह" शब्द का प्रयोग करते हैं । मोह को उन्होंने सभी दोषों में मुख्य माना है । यदि मोह नहीं है तो अन्य दोषों की उत्पत्ति नहीं होती।
___ कठोपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र में भी अविद्या को मुख्य दोष माना है।
1 याग दर्शन २।३-४॥ ४ सांख्यकारिका ४७-४८ । ३ देखिये-प्रशस्तपाद भाष्य, संसारापवर्ग । 4 (क) न्याय सूत्र ४१।३, न्याय सूत्र ४।१।६ ।
(ख) न्याय सूत्र का भाष्य भी देखें । 5 कठोपनिषद् १।२।५। ७ श्रीमद्भगवद्गीता ५॥१५॥
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