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भारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोक्ष मार्ग | १५
मज्झिमनिकाय आदि ग्रन्थों में तथागत बुद्ध ने संसार का मूल कारण अविद्या बताया है । अविद्या होने से ही तृष्णादि दोष समुत्पन्न होते हैं 11
जैन दर्शन ने संसार का मूल कारण दर्शनमोह और चारित्रमोह को माना है । अन्य दार्शनिकों ने जिसे अविद्या, विपर्यय, मोह या अज्ञान कहा है उसे ही जैन दर्शन ने दर्शनमोह या मिथ्यादर्शन के नाम से अभिहित किया है। अन्य दर्शनों ने जिसे अस्मिता, राग, द्वेष या तृष्णा कहा है— उसे जैन दर्शन ने चारित्रमोह या कषाय कहा है । इस प्रकार वैदिक, बौद्ध और जैन परम्परा संसार का मूल अविद्या या मोह का समावेश उसमें करती हैं ।
संसार का मूल अविद्या है तो उससे मुक्त होने का उपाय विद्या है । एतदर्थ कणाद ने विद्या का निरूपण किया है। पतंजलि ने उस विद्या को विवेकख्याति कहा है | अक्षपाद ने विद्या और विवेक ख्याति के स्थान पर तत्त्वज्ञान या सम्यग्ज्ञान पद का प्रयोग किया है । बौद्ध साहित्य में उसके लिए मुख्य रूप से 'विपस्सना' या 'प्रज्ञा' शब्द व्यवहृत हुए हैं । जैन दर्शन में भी सम्यग्ज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है । इस प्रकार सभी भारतीय दर्शनों की परम्पराएँ विद्या, तत्त्वज्ञान, सम्यग्ज्ञान, आदि से अविद्या या मोह का नाश मानती हैं और उससे जन्म परम्परा का अन्त होता है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से अविद्या का अर्थ है अपने निज स्वरूप के ज्ञान का अभाव । आत्मा, चेतन या स्वरूप का अज्ञान की मूल अविद्या है । यही संसार का मूल कारण है ।
वैदिक परम्परा ने साधना के विविध रूपों का वर्णन किया है किन्तु संक्षेप में गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म इन तीनों अंगों पर प्रकाश डाला है ।
तथागत बुद्ध ने (१) सम्यग्दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वाक्, (४) सम्यक् कर्मान्त, (५) सम्यक् आजीव, (६) सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति, और (८) सम्यक् समाधि को आर्य अष्टांगिक मार्ग कहा है और मार्गों में उसे श्रेष्ठ बताया है । बुद्धघोष ने संक्षेप में उसे शील, समाधि और प्रज्ञा कहा है ।"
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जैन दर्शन ने साधना के मार्ग पर गहराई से अनुचिन्तन करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा है । कहीं पर उसमें तप का भी
1 मज्झिमनिकाय महा तन्हा संखय सुत्त ३८ । 2 विशुद्धि मग्ग १|७ |
8 मज्झिमनिकाय सम्मादिट्ठि सुत्तन्त ६ ।
4 मग्गानं अगिको सेट्ठी ।
5 विशुद्धि मार्ग ।
● तत्त्वार्थ सूत्र १।१ ।
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