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________________ भारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोक्ष मार्ग | & 1 देती हुई खेमा भिक्षुणी ने कहा - "जैसे गंगा नदी के किनारे पड़े हुए रेत के कणों को गिनना कथमपि सम्भव नहीं है, या सागर के पानी को नापना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार निर्वाण की अगाधता को नापा नहीं जा सकता ।" बुद्ध के पश्चात् उनके अनुयायी दो भागों में बँट गये, जिन्हें हीनयान और महायान कहा जाता है । अन्य सिद्धान्तों के साथ उनके शिष्यों में इस सम्बन्ध में मतभेद हुआ कि हमारा लक्ष्य हमारा ही निर्वाण है या सभी जीवों का निर्वाण है ? बुद्ध के कुछ शिष्यों ने कहा- हमारा लक्ष्य केवल हमारा ही निर्वाण है । दूसरे शिष्यों ने उनका प्रतिवाद करते हुए कहा- हमारा लक्ष्य जीवन मात्र का निर्वाण है। प्रथम को द्वितीय ने स्वार्थी कहा और उनका तिरस्कार करने के लिए उनको हीनयान कहा, और अपने आपको महायानी कहा । स्वयं हीनयानी इस बात को स्वीकार नहीं करते, वे अपने आपको थेरवादी ( स्थविरवादी ) कहते हैं । संक्षेप में सार यह है कि बुद्ध ने स्वयं निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रस्तुत नहीं किया, जिसके फलस्वरूप कतिपय विद्वानों ने निर्वाण को शून्यता के रूप में वर्णन किया है तो कतिपय विद्वानों ने निर्वाण को प्रत्यक्ष आनन्ददायक बताया है । 2 जैन दर्शन वैदिक दर्शन और बौद्ध दर्शन में जिस प्रकार मोक्ष और निर्वाण के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं; वैसे जैन दर्शन में किसी भी सम्प्रदाय में मतभेद नहीं है । मेरी दृष्टि से इसका मूल कारण यह है कि वेदों के मोक्ष में सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की गयी और वैदिक आचार्यों ने उसे आधार बनाकर और अपनी कमनीय कल्पना की तूलिका से उसके स्वरूप का चित्रण किया है । बौद्ध साहित्य का पर्यवेक्षण करने से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि तथागत बुद्ध ने अपने आपको सर्वज्ञ नहीं कहा है। उन्होंने अपने शिष्यों को यह आदेश दिया कि तुम मेरे कथन को भी परीक्षण प्रस्तर पर कसकर देखो कि वस्तुतः वह सत्य - तथ्ययुक्त है या नहीं, किन्तु भगवान महावीर ने अपने आपको सर्वज्ञ बताया और सर्वज्ञ के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखने की प्रबल प्रेरणा प्रदान की। जिसके कारण जैनधर्म में श्रद्धा की प्रमुखता रही । सर्वज्ञ के वचन के विपरीत तर्क करना बिल्कुल ही अनुचित माना गया, जिससे तत्त्वों के सम्बन्ध में या मोक्ष के सम्बन्ध में किसी प्रकार का मतभेद नहीं हो सका । जैनदर्शन परिणामी नित्यता के सिद्धान्त को मान्य करता है किन्तु प्रस्तुत सिद्धान्त सांख्य-योग के समान केवल जड़ अर्थात् अचेतन तक ही सीमित नहीं है । संयुक्त निकाय खेमा सुत्त 1 2 भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० ४१६-१७, ( डॉ० राधाकृष्णन ) । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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