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१० | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
उसका यह वज्र घोष है कि चाहे जड़ हो या चेतन सभी परिणामी नित्य है । यहाँ तक कि यह परिणामी नित्यता द्रव्य के अतिरिक्त उसके साथ होने वाली शक्तियों ( गुण-पर्यायों) को भी व्याप्त करती है ।
जैन-दर्शन आत्म- द्रव्य को न्याय-वैशेषिक के समान व्यापक नहीं मानता और रामानुज के समान आत्मा को अणु भी नहीं मानता, किन्तु वह आत्म-द्रव्य को मध्यम परिणामी मानता है । उसमें संकोच और विस्तार दोनों गुण रहे हुए हैं, जो जीव एक विराटकाय हाथी के शरीर में रहता है वही जीव एक नन्हीं सी चींटी में भी रहता है । द्रव्य रूप से जीव शाश्वत है किन्तु परिणाम की दृष्टि से उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता है | परिणामी सिद्धान्त को मानने के कारण जैन दर्शन ने स्पष्ट रूप से यह माना है कि जिस शरीर से जीव मुक्त होता है, उस शरीर का जितना आकार होता है उससे तृतीय भाग न्यून विस्तार सभी मुक्त जीव का होता है । 1
स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा में जो संकोच और विस्तार होता है वह कर्मजन्य शरीर के कारण से है । मुक्तात्माओं में शरीराभाव होने से उनमें संकोच और विस्तार नहीं हो सकता । मुक्तात्माओं में जो आकृति की कल्पना की गयी है वह अन्तिम शरीर के आधार से की गयी है। मुक्त जीव में रूपादि का अभाव है तथापि आकाश प्रदेशों में जो आत्म प्रदेश ठहरे हुए हैं उस अपेक्षा से आकार कहा है ।
जैन दर्शन की प्रस्तुत मान्यता सम्पूर्ण भारतीय दर्शन की मान्यता से पृथक है । यह जैन-दर्शन की अपनी मौलिक देन है । इसका मूल कारण यह है कि कितने ही दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं तो कितने ही दर्शन आत्मा को अणु मानते हैं । इस कारण मोक्ष में आत्मा का परिणाम क्या है उसे वे स्पष्ट नहीं कर सके हैं, किन्तु जैनदर्शन की मध्यम परिणाम की मान्यता होने से मुक्ति दशा में आत्मा के परिणाम के सम्बन्ध 'एक निश्चित मान्यता है ।
जैन दर्शन के अनुसार मुक्त आत्म-द्रव्य में सहभू-चेतना, आनन्द आदि शक्तियाँ अनावृत होकर पूर्ण विशुद्ध रूप से ज्ञान, सुख आदि रूप में प्रतिपल प्रतिक्षण परिणमन करती रहती है, वह मात्र कूटस्थनित्य नहीं अपितु शक्ति रूप से नित्य होने पर प्रति समय होने वाले नित्य नूतन सदृश परिणाम प्रवाह के कारण परिणामी है । यह जैनदर्शन का मोक्षकालीन आत्मस्वरूप अन्य दर्शनों से अलग-थलग है । उसमें अन्य दर्शनों के साथ समानता भी है । द्रव्य रूप से स्थिर रहने के सम्बन्ध में न्याय-वैशेषिक दर्शनों के साथ इसका मेल बैठता है और सांख्य-योग एवं अद्वैत दर्शनों के साथ सहभू-गुण की अभिव्यक्ति या प्रकाश सम्बन्ध में समानता है । यद्यपि योगाचार या विज्ञानवादी बौद्ध शाखा के ग्रन्थों से यह बहुत स्पष्ट रूप से फलित नहीं होता, तथापि यह ज्ञात होता है कि वह मूल में क्षणिकवादी होने से मुक्तिकाल में आलय विज्ञान को विशुद्ध मानकर
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उत्तराध्ययन,
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