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________________ ८ | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ 'वाण' का चतुर्थ अर्थ बुनना है और निर् का अर्थ नहीं है अतः निर्वाण ऐसी स्थिति है जो सभी प्रकार के दुःख देने वाले कर्मों रूपी धागों से जो जन्म-मरण का धागा बुनते हैं उनसे पूर्ण मुक्ति है ।' पाली टेक्स्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पाली-अंग्रेजी शब्द कोष में 'निव्वान' शब्द का अर्थ बुझ जाना किया है । अमर कोष में भी यही अर्थ प्राप्त होता है । रीज' डेविड्स थामस, आनन्दकुमारस्वामी, पी० लक्ष्मी नरसु, दाहलमेन, डॉ० राधाकृष्णन्, प्रो० जे० एन० सिन्हा, डॉ० सी० डी० शर्मा प्रभृति अनेक विज्ञों का यह पूर्ण निश्चित मत है कि निर्वाण व्यक्तित्व का उच्छेद नहीं है अपितु यह नैतिक पूर्णत्व की ऐसी स्थिति है जो आनन्द से परिपूर्ण है । डॉ० राधाकृष्णन् लिखते हैं- निर्वाण न तो शून्य रूप है और न ही ऐसा जीवन है जिसका विचार मन में आ सके, किन्तु यह अनन्त यथार्थ सत्ता के साथ ऐक्यभाव स्थापित कर लेने का नाम है, जिसे बुद्ध प्रत्यक्षरूप से स्वीकार नहीं करते हैं 12 बुद्ध की दृष्टि से 'निव्वान' उच्छेद या पूर्ण क्षय है परन्तु यह पूर्ण क्षय आत्मा का नहीं है । यह क्षय लालसा, तृष्णा, जिजीविषा एवं उनकी तीनों जड़ें राग, जीवन धारण करने की इच्छा और अज्ञान का है । 3 प्रो० मेक्समलूर लिखते हैं कि यदि हम धम्मपद के प्रत्येक श्लोक को देखें जहाँ पर निर्वाण का शब्द आता है तो हम पायेंगे कि एक भी स्थान ऐसा नहीं जहाँ पर उसका अर्थ उच्छेद होता है । सभी स्थान नहीं तो बहुत अधिक स्थान ऐसे हैं जहाँ पर हम निर्वाण शब्द का उच्छेद अर्थ ग्रहण करते हैं तो वे पूर्णतः अस्पष्ट हो जाते हैं 14 राजा मिलिन्द की जिज्ञासा पर नागसेन ने विविध उपमाएँ देकर निर्वाण की समृद्धि का प्रतिपादन किया है । जिससे यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध का निर्वाण न्यायवैशेषिकों के मोक्ष के समान केवल एक निषेधात्मक स्थिति नहीं है । तथागत बुद्ध ने अनेक अवसरों पर निर्वाण को अव्याकृत कहा है। विचार और वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । प्रसेनजित् के प्रश्नों का उत्तर 1 सिस्टम्स ऑफ बुद्धिस्टिक थॉट, पृ० ३१ । 2 भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० ४११ - १४ | 3 (क) धम्मपद १५४ | (ख) देखें - संयुक्त निकाय के ओघतरण सुत्त, निमोक्ख सुत्त, संयोजन सुत्त तथा बन्धन | एन. . के. भगत : पटना यूनिवर्सिटी रीडरशिप लेक्चर्स, १६२४-२५, पृ० १६५ । 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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