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________________ ८२ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] यह पूर्ण सत्य-तथ्य है कि युगपुरुष बनाया नहीं जाता, स्वयं ही बन जाता है। युगपुरुष अपने युग का प्रबल प्रतिनिधित्व करता है । युग की जनता को सही दिशा में गति करने की प्रेरणा देता है । भूले-भटके जीवन के राहियों को पथ प्रदर्शन करता है और उनको यह आगाह करता है कि तेरा मार्ग यह नहीं है जिस पर तू मुस्तैदी से कदम बढ़ा रहा है, अंध-श्रद्धा से प्रेरित होकर चला जा रहा है, जरा संभल, विवेक के विमल प्रकाश में चल । इस प्रकार वह अपने युग की भावुक जनता को-श्रद्धालु भक्तों को श्रद्धा, भक्ति और अर्पण का पुनीत पाठ पढ़ाता है। सत्यं शिवं सुन्दरम् से उनके जीवन को चमकाता है। ___ आचार्य प्रवर परम श्रद्धय जयमल्लजी महाराज को मैं एक निश्चित अर्थ में युगपुरुष मानता हूँ। जो युगपुरुष होता है वह युगदृष्टा भी होता है। जीवन का व्यापक और उदार दृष्टिकोण ही युगपुरुष और युगदृष्टा की सच्ची कसौटी है। इस कसौटी पर जब हम आचार्य प्रवर के व्यक्तित्व और कृतित्व को कसते हैं तो वह पूर्ण रूप से खरा उतरता है । वे एक बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे, जिन्होंने जन-जीवन को नया विचार, नयी वाणी और नया कर्म दिया, भोग मार्ग से हटाकर योग मार्ग की ओर बढ़ने से उत्प्रेरित किया। जन-जन के मन से अज्ञान-अंधकार को हटाकर ज्ञान की दिव्य ज्योति जगायी। __ आचार्य प्रवर का जन्म विक्रम संवत् १७६५ भादवा सुदी १३ को जोधपुर राज्यान्तर्गत लाम्बिया गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहनदासजी और माता का नाम महिमादेवी था। ये समदड़िया महता गोत्रीय बीसा ओसवाल थे । इनके पिता कामदार थे । इनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम रीडमलजी था । इनका बाल्यकाल सुखद और शान्त था । माता का वात्सल्य, पिता का स्नेह और अपने ज्येष्ठ भ्राता का प्रेम इन्हें खूब मिला। इनकी तेजस्विता, बुद्धि की विलक्षणता से ग्राम के अन्य लोग भी इनकी अत्यधिक प्रशंसा करते थे । सहृदयता, नियमबद्धता, परदुःखकातरता, सरलता और सौजन्यता आदि ऐसे विशिष्ट गुण थे जिनके कारण ये सभी के विशेष रूप से आदर-पात्र थे। बाल्यकाल में वे अपने हमजोली संगी-साथियों के साथ खेलते-कूदते भी थे, नाचते-गाते भी थे, हँसते-हँसाते भी थे, रूठते-मचलते भी थे। इस प्रकार बाल्य-सुलभ सभी कार्य करने पर भी उनके स्वभाव की गम्भीरता, चिन्तन की महानता आदि प्रत्येक कार्य में झलक पड़ती थी। उनकी वैराग्य भावना सहज स्फूर्त थी। ____ बाईस वर्ष की अवस्था में माता-पिता के स्नेह भरे आग्रह को सम्मान देकर रीयां के शिवकरण जी मूथा की सुपुत्री लक्ष्मीदेवी के साथ पाणिग्रहण किया और व्यापारी बनकर व्यापार क्षेत्र में उतरे, किन्तु वह उनके जीवन का लक्ष्य नहीं था। उनका मन का पंछी उसमें रम नहीं रहा था। वह तो साधना के अनन्त गगन में विचरण करना चाहता था। संयोग से अपने साथियों के साथ व्यापार हेतु, मेडता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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