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सन्तकवि आचार्य श्री जयमल्लजी
समाज के विकास के लिए, कल्याण के लिए, समय-समय पर किसी न किसी युगपुरुष का जन्म होता है जो अपने जीवन की पवित्रता, दिव्यता और महानता से जन-जीवन को सही दिशा-दर्शन देता है । वह अपने पवित्र आचार और विचार से अन्धविश्वासों को, अन्ध-परम्पराओं को एवं दृढ़तापूर्ण रूढ़िवाद को उखाड़कर फेंक देता है । जब तक उसके तन में प्राण-शक्ति है, मन में तेज है और वाणी में औज है, वहाँ तक वह संस्कृति के नाम पर पनपने वाली विकृति से लड़ता है, धर्म के नाम पर पनपने वाले अधर्म से जूझता है । वह शूलों के कंटकाकीर्ण मार्ग को भी फूलों की शय्या समझकर आगे बढ़ता है । जग जीता है बढ़ने वालों ने-यह उसके जीवन का मूल-मंत्र है, महान आदर्श है । वह शेर की तरह गम्भीर गर्जन करता हुआ आगे बढ़ता है। विरोधी उसके मार्ग में बाधक बनते हैं; किन्तु वह अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा
और सहिष्णुता के कारण उन्हें साधक बना देता है । विरोधी विरोध से विस्मृत होकर एक दिन उसके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं और वे उसका अनुकरण व अनुगमन करने लगते हैं, क्योंकि उसके विचारों में युग के विचार झंकृत होते हैं, उसकी वाणी में युग की वाणी मुखरित होती है । उसके आचरण में युग का आचरण क्रियाशील होता है। उसका सोचना, बोलना और करना स्वहिताय के साथ ही सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय होता है । वह अपमान के जहर के प्याले को स्वयं पीकर दूसरों को सम्मान का अमृत बाँटता है । कवि दिनकर के शब्दों में युगपुरुष की परिभाषा यह है
सब की पीड़ा के साथ व्यथा,
अपने मन की जो जोड़ सके । मुड़ सके जहाँ तक समय उसे
निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके । युग पुरुष वही सारे समाज का
निहित धर्म गुरु होता है। सब के मन का जो अंधकार
अपने प्रकाश से धोता है ।
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