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________________ सन्तकवि आचार्यश्री जयमल्लजी | ८३ गये। वहां पर बाजार बन्द देखा । आचार्य भूधर जी महाराज की सेवा में उपस्थित हुए । उनके वैराग्य से छलछलाते हुए पावन प्रवचन को श्रवण कर मन में वैराग्य भावना अठखेलियाँ करने लगी। उसी क्षण आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर एक महान् साधक का आदर्श उपस्थित किया । ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लेने मात्र से ही उन्हें सन्तोष कहाँ था ? वे तो एक विशिष्ट अध्यात्म योगी बनना चाहते थे, परन्तु उसके लिए बाधक थी मां की ममता, पिता का प्यार और नवपरिणीता का अपार स्नेह । किन्तु कोई भी उन्हें अपने लक्ष्य से विचलित न कर सका। क्या कभी गजराज कमलनाल के कोमल तन्तुओं से बंधा है ? एक ओर पत्नी द्विरागमन की अपलक प्रतीक्षा कर रही थी, मन में रंग-बिरंगे सपने संजो रही थी, किन्तु दूसरी ओर आचार्यश्री के प्रवचन से पति शिव सुन्दरी को वरण करने के लिए, श्रमण बन जाता है और ऐसा आदर्श श्रमण बनता है कि जिसकी तुलना अन्य साधारण श्रमणों से नहीं की जा सकती । श्रमण बनते ही सोलह वर्ष तक निरन्तर एकान्तर तप का आचरण किया। जिसमें एक दिन का उपवास और एक दिन का आहार ग्रहण करने का क्रम चलता रहा है । यहाँ तक कि आचार्य भूधरजी के स्वर्गारोहण के दिन से लेकर पचास वर्ष तक कभी लेटकर नहीं सोये । कितनी गजब की थी उनकी आध्यात्मिक साधना । आज का साधक धुआँधार प्रचार तो करना चाहता है, पर जीवन में क्रिया का तेज नहीं है। बिना तेल की बत्ती बताइये, कब तक प्रकाश दे सकती है ? आचारहीन विचार कल्चर मोती है जिसकी चमक और दमक कृत्रिम और अस्थायी है। ___ आचार्यश्री जयमल्ल जी महाराज क्या थे ? ज्ञान और कृति के सुन्दर समन्वय, 'विचार में आचार और आचार में विचार'। वे थे मनोविजेता अतः जगत विजेता भी थे । उन्होंने स्फटिक-सा निर्मल और समुद्र-सा अगाध ज्ञान पाया था, किन्तु कभी भी उसका अहंकार नहीं किया। उन्होंने महान् त्याग किया, किन्तु कभी भी उस त्याग का विज्ञापन नहीं किया। उन्होंने उत्कृष्ट तपस्या की, किन्तु कभी भी उसका प्रचार नहीं किया। उन्होंने वैराग्य की उत्कृष्ट साधना की किन्तु कभी भी उसका शोरगुल नहीं मचाया । कमल कब कहता है कि सुगन्ध लेने के लिए मेरे पास आओ किन्तु भंवरे तो सौरभ लेने के लिए उस पर उमड़-घुमड़ कर मंडराते ही रहते हैं । यही कारण है सम्राट से लेकर हजारों-हजार व्यक्ति उनके गुणों पर मुग्ध होते रहे और उनके अनुयायी बनते रहे । जिधर से भी निकले उधर भक्त वर्ग तैयार होता रहा । श्रद्धय जयमल्ल जी महाराज का मुख्य विहार स्थल मरुधर प्रान्त रहा है, आज ऐतिहासिक प्रबल प्रमाणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि मरुधरघरा की पुण्य भूमि में स्थानकवासी जैन धर्म का सर्वप्रथम प्रचार आचार्य सम्राट श्रद्धेय श्री अमरसिंह जी महाराज ने किया था। पूज्यश्री धर्मदास जी महाराज की शाखा के प्रज्ञामूर्ति पूज्यश्री धनाजी महाराज ने यह सुना कि आचार्यश्री अमरसिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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