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६० | चितन के विविध आयाम [खण्ड २]
भृगु पुरोहित ऋध तज नीसों थे जाणो आसी मारे भोग । एक दिन मरणो हो राजाजी यदा तदा, छेड़ो नी काम विशेष ॥ बीजो तो तारण जग में को नहीं,
तारे जिणजी रो धर्म एक ॥ रानी राजा से आगे चलकर कहती है कि एक तोते को रल जडित पिंजडे में भले ही बन्द कर दिया जाय, पर वह उसे बंधन मानता है, वैसे ही राजमहलों को मैं बंधन मानती हूँ। यहां मुझे तनिक मात्र भी आनन्द की उपलब्धि नहीं हो रही है, अतः मैं संयम को ग्रहण करना चाहती हूँ। वह राजा से नम्र निवेदन करती है
रत्न-जडित हो राजा जी पिंजरो,
सुवो तो जाणे है फंद । इसडी पण हूँ थारा राज में,
रति न पाँऊ आणंद ॥ स्नेहरूपिया तांतां तोडने,
___ और बंधन सू रहसू दूर । विरक्त थई ने संजम मैं ग्रहूँ,
थे भी पण होय जाओ सूर ।। मुनि का वेश धारण करके भी यदि मन में श्रमणत्व नहीं है, तो वह वेश भी कलंकरूप है । आषाढ भूति अनगार के चरित्र में आभूषणों से लदी हई साध्वी को निहार कर आचार्य कहते हैं
सुण महासती, या लखणांसु जैन धर्म अति लाजे । गुण नहीं रती, लोकां माहे निग्रन्थणी यूवाजे । थू चाले छे चाला करती,
शुद्ध ईर्यासमिति नहीं धरती। लोक लाज सु नहीं डरती,
थूलावे गोचरी झरझरती ॥ कपट सहित साधना, साधना नहीं, अपितु विराधना है। वह आत्म-वंचना है। अनन्त काल से आत्मा इस प्रकार साधना करता रहा, किन्तु जीवनोत्थान नहीं हुआ, अतः कवि कह रहा है
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