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जैन मुनियों का साहित्यिक योगदान | ५६ वचन अपूरव एह, पुत्र ना सांभली-री मांई। घणी मूर्छा-गति खाय, धमके धरणी ढली ॥ खलकी हाथा री चूड,माथे रा केश वीखऱ्या री माई।
ओढण हुवो दूर, आंखें आंसू झऱ्या ॥ मेघ कुमार के चरित्र में माता धारणी को मेघकुमार कहते हैं कि मां, भौतिक पदार्थ के सुख सच्चे सुख नहीं हैं, ये आकाश में उमड-घुमड कर आते हुए बादलों की तरह क्षणिक हैं । कवि कहता है
संसार ना सुख सहु काचा,
___ इण लोक अर्थी जाणे साचा । भोग विषय में रह्या कलीजे,
मैं तो जाणी ए काची माया, बिललावे जिम बादल छाया,
ऐसी जाणी कहो कुण रीझे ॥ इस प्रकार चरित-कथाओं में कतिपय स्थल अत्यन्त मार्मिक बन पड़े हैं ।
भृगु पुरोहित के चरित्र में जब भृगुपुरोहित अपनी विराट सम्पत्ति का परिस्याग कर श्रमण बनने के लिए प्रस्तुत होता है तब राजा उसकी सम्पत्ति को लेने के लिए उद्यत होता है । इस प्रसंग पर महारानी कमलावती का उद्बोधन नितान्त मर्मस्पर्शी है । वह कहती है-राजन् ! एक ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त सम्पत्ति को आप ग्रहण न करें । राजा का भाग्य बड़ा होता है। उच्छिष्ट आहार की इच्छा तो कोवा और कुत्ता ही करता है, तुम्हें प्रवृत्त वृत्ति शोभा नहीं देती है, यह कार्य लज्जास्पद है । सारे विश्व की विभूति भी प्राप्त हो जाय तो भी तृष्णा शान्त नहीं हो सकती । एक दिन इस विराट सम्पत्ति को छोड़कर एकाकी ही प्रस्थित होना पड़ेगा अतः वीतराग धर्म को ग्रहण करो, वही त्राण और कल्याण का मार्ग है। कवि की कल्याणमयी वाणी सुनिए
सांभल महाराजा ब्राह्मण छांडी हो; रिध मती आदरो । राजा का मोटा भाग। वमिया आहार की हो। वांछा कुण करे करे छे कुतरो ने काग ॥ काग ने कुत्ता सरीखा किम हुवो, नहीं प्रसंसवा जोग ।।
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