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________________ ५२ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] स्थिर आसन हो, स्थिर वचन और तम चंचल वातावरण नहीं । स्थिर योग-साधना करके को फिर, स्थिर होते क्यों करण नहीं स्थिर ध्यान-साधना हो जाने से,, मरने से क्या उरना जी ॥१॥ उनके बनाये हुए शताधिक भजन हैं और एक-दो खण्ड-काव्य भी हैं । उनके द्वारा लिखित कहानी संग्रह 'जीवन की चमकती प्रभा' के नाम से प्रकाशित हुआ है और तीन-चार कहानी-संग्रह की पुस्तकें अप्रकाशित हैं । 'आगम के अनमोल मोतीतीन भाग' भी प्रकाशन के पथ पर हैं। आपका जन्म वि० सं० १९७० (सन् १९१३) में गोगुन्दा ग्राम में हुआ था । आपके पूज्य पिता श्री का नाम सेठ हीरालाल जी तथा मातेश्वरी का नाम प्यारी बाई था। आपके अन्तर्मानस में वैराग्य-भावना प्रारम्भ से ही थी। किन्तु पारिवारिक जनों के आग्रह से आपका पाणिग्रहण उदयपुर निवासी श्री कन्हैयालाल जी बरडिया के सुपुत्र जीवन सिंह जी बरड़िया के साथ सन् १९२८ में सम्पन्न हुआ। श्री जीवनसिंह जी बरड़िया उदयपुर के एक लब्धप्रतिष्ठित कपड़े के व्यापारी थे । आपका बहुत ही लघुवय यानी चौदह वर्ष की उम्र में प्रथम पाणिग्रहण एडवोकेट श्रीमान् अर्जुनलाल जी भंसाली की सुपुत्री प्रेमकुमारी के साथ सम्पन्न हुआ । उनसे एक पुत्री हुई। उनका नाम सुन्दरकुमारी रखा गया। कुछ वर्षों के पश्चात् प्रेमकुमारी का देहावसान हो जाने से चौबीस वर्ष की उम्र में आपका द्वितीय विवाह हुआ। आपके दो पुत्र हुए- एक का नाम बसन्तकुमार और दूसरे का नाम धन्नालाल रखा गया। बसन्तकुमार डेढ़ माह के बाद ही संसार से चल बसा । और २७ वर्ष की उम्र में संथारे के साथ जीवनसिंह जी भी स्वर्गस्थ हो गये । पुत्र और पति के स्वर्गस्थ होने पर वैराग्यभावना जो प्रारम्भ में अन्तर्मानस में दबी हुई थी, वह साध्वी रत्न महासती श्री सोहनकुवर जी के पावन उपदेश को सुनकर उबुद्ध हो उठी। जिस समय पति का स्वर्गवास हुआ, उस समय द्वितीय पुत्र धन्नालाल सिर्फ ११ दिन का ही था। अतः महासतीजी ने कर्तव्य-बोध कराते हुए कहा-अभी तुम्हारी पुत्री सुन्दरकुमारी सिर्फ 7 वर्ष की है और बालक धन्नालाल कुछ ही दिन का है। पहले इनका लालन-पालन करो, सम्भव है, ये भी जिनशासन में दीक्षित हो जायें । सद्गुरुणी जी की प्रेरणा से आप गृहस्थाश्रम में रहीं। पर पूर्ण रूप से सांसारिक भावना से उपरत ! आपने वि० सं० १९६८ (सन् १९४१ में) में अषाढ़ सदी तृतीया को आहती दीक्षा ग्रहण की। वैराग्य अवस्था में ही आपको आगम व दर्शन का इतना गहरा ज्ञान था कि दीक्षा लेते ही सद्गुरुणी जी की आज्ञा से सिंघाड़ापति होकर स्वतंत्र वर्षावास किया। आपकी प्रवचन कला इतनी प्रभावोत्पादक थी कि श्रोता मंत्र-मुग्ध रह जाते । आपने दीक्षा लेने के पूर्व अपनी पुत्री सुन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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