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जैन शासन-प्रभाविका अमर साधिकाएँ | ५१
महासती पुष्पवतीजी द्वितीय शिष्या हैं । उनकी तीन शिष्याएं हैं-बालब्रह्मचारिणी चन्द्रावतीजी, बालब्रह्मचारिणी, प्रियदर्शनाजी और बालब्रह्मचारिणी किरणप्रभाजी।
___ तृतीय सुशिष्या प्रज्ञामूर्ति महासती प्रभावतीजी थी। आप प्रबल प्रतिभा की धनी, आगम और दर्शन की गम्भीर ज्ञाता थीं। आपने आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, विपाक, सूत्रकृतांग, प्रभृति अनेक आगम कंठस्थ किये थे और साथ ही आगम के रहस्यों को समुद्घाटित करने वाले ४००-५०० थोकड़े भी कंठस्थ थे। जिससे आगम की गुरु गम्भीर ग्रन्थियों को अपनी प्रकृष्ट मेधा से उद्घाटित कर देती थी। नन्दीसूत्र के प्रति अत्यधिक अनुराग था । उसकी स्वाध्याय दिन में अनेकों बार करती थी। आपकी प्रवचन कला सहज थी। प्रवचन में आगम के रहस्यों को सहज और सुगम रूप से प्रस्तुत करती थीं। और उसके लिए आगमिक उदाहरणों के साथ लौकिक जन-जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के माध्यम से स्पष्टीकरण करती, जिससे श्रोता मंत्र-मुग्ध हो जाता था। आप कवयित्री थी। आपकी कविता में शब्दाडम्बर नहीं, पर भावों की प्रमुखता थी । जब कभी भी भावों का ज्वार उठता, वह सहज ही भाषा के रूप में ढल जाता। कविता बनाने के लिए उन्हें प्रयास करने की आवश्यकता नहीं थी, वह सहज ही बन जाती । अरिहंत देव की स्तुति करते हुए उनकी हत्तंत्री के तार इस प्रकार झनझनाये हैं
"जय अरिहंताणं, अरिहंत देव भगवान्, जय अरिहंताणं, धर अरिहंतां रो ध्यान ...
पाँच पदा में प्रथम पद, मदरहित निरापद जान । ज्ञान का महत्व प्रतिपादित करते हुए आगम की शब्दावली को अपनी सहज भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया है मानो आगम का रस-पान ही कर लिया है। वह तीव अनुभूति की अभिव्यक्ति कितनी सुबोध है
"ज्ञान जो होगा नही तो, हो नहीं सकती दया । आगमों में वीर द्वारा, वचन फरमाया गया ... ज्ञान जीवाऽजीव का पहले जरूरी चाहिए।
फिर क्रियाएँ कीजिए, रस प्राप्त हो सकता नया । ध्यान जीवनोत्कर्ष की मंगलमय साधना है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का सर्वोच्च उपाय है । ध्यान कहने की नहीं करने की साधना है । और वह कला वही व्यक्ति बता सकता है, जिसने स्वयं ध्यान की साधना सिद्ध की है। देखिए उन्हीं के शब्दों में
"इस मन को स्थिर करना चाहो तो,
ध्यान साधना करना जी.............."
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