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भारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोक्ष मार्ग | ३
तक शरीर, इन्द्रिय और सत्त्वात्मक मन आदि का सम्बन्ध रहता है तब तक उनके द्वारा उत्पन्न ज्ञान आत्मा में होता है । ऐसे ज्ञान को धारण करने की शक्ति चेतन में है, पर वे ऐसा कोई स्वाभाविक गुण चेतन में नहीं मानते हैं जो शरीर, इन्द्रिय, मन आदि का सम्बन्ध न होने पर भी ज्ञान गुण रूप में या विषय ग्रहण रूप में आत्मा में रहता हो । न्याय-वैशेषिकदर्शन की प्रस्तुत कल्पना अन्य वैदिक दर्शनों के साथ मेल नहीं खाती है । सांख्यदर्शन, योगदर्शन एवं आचार्य शंकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ, प्रभृति जितनी भी वेद और उपनिषद् दर्शन की धाराएँ हैं वे इस बात को स्वीकार नहीं करतीं ।' न्याय-वैशेषिक की दृष्टि से मोक्ष की अवस्था में आत्मा सभी प्रकार के अनुभवों को त्यागकर केवल सत्ता में रहता है। वह उस समय न शुद्ध आनन्द का अनुभव कर सकता है और न शुद्ध चैतन्य का ही । आनन्द और चेतना ये दोनों ही आत्मा के आकस्मिक गुण हैं और मोक्ष अवस्था में आत्मा सभी आकस्मिक गुणों का परित्याग कर देती है, अतः निर्गुण होने से आनन्द और चैतन्य भी मोक्ष अवस्था में उसके साथ नहीं रहते ।
न्याय-वैशेषिक दर्शन ने मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहा - यह दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति है | # दुःखों का ऐसा नाश है कि भविष्य में पुनः उनके होने की सम्भावना नष्ट हो जाती है ।
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न्यायसूत्र पर भाष्य करते हुए वात्स्यायन लिखते हैं कि जब तत्त्वज्ञान के द्वारा मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है तब उसके परिणामस्वरूप सभी दोष भी दूर हो ते हैं । दोष नष्ट होने से कर्म करने की प्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है । कर्मप्रवृत्ति समाप्त हो जाने से जन्म-मरण के चक्र रुक जाते हैं और दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है ।" न्यायवार्तिककार ने उसे सभी दुःखों का आत्यन्तिक अभाव कहा है ।" मोक्ष में बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, संकल्प, पुण्य, पाप तथा पूर्व अनुभवों के संस्कार इन नौ गुणों का आत्यन्तिक उच्छेद हो जाता है ।" उनकी दृष्टि से मोक्ष इसलिए परम पुरुषार्थ है कि उसमें किसी भी प्रकार का दुःख और दुःख के कारण का अस्तित्व नहीं है । वे मोक्ष की साधना इसलिए नहीं करते कि उसके प्राप्त होने पर
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कोई चैतन्य के सुख जैसा सहज और शाश्वत गुणों का अनुभव होगा ।
1 अध्यात्म विचारणा पृष्ठ ७५ ।
2 (क) आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिः - (मोक्षः) ।
(ख) (मोक्षः) चरम दुःखध्वंसः - तर्कदीपिका |
3 न्याय सूत्र १।१।२ पर भाष्य ।
4 तद्भावे संयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्च मोक्षः । - वैशेषिक सूत्र ५।२1१८
5 (मोक्षः) आत्यन्तिको दुःखाभावः ।
- न्याय वार्त्तिक
• (क) न्यायमंजरी, पृष्ठ ५०८ ।
(ख) सभाष्य न्यायसूत्र १।१।२२ ।
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