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२ चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १
मैं यहाँ पर मोक्ष और मोक्ष-मार्ग पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन प्रस्तुत कर रहा हूँ।
___ भारतीय आत्मवादी परम्परा को वैदिक, जैन, बौद्ध और आजीविक इन चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। वर्तमान में आजीविक दर्शन का कोई भी स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, अतः आजीविक द्वारा प्रतिपादित मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन न कर शेष तीन की मोक्ष सम्बन्धी विचारधारा पर चिन्तन करेंगे।
___ न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा, ये छह दर्शन वैदिक परम्परा में आते हैं। पूर्वमीमांसा मूलरूप से कर्ममीमांसा है, भले ही वह वर्तमान में उपनिषद् या मोक्ष पर चिन्तन करती हो, पर प्रारम्भ में उसका चिन्तन मोक्ष सम्बन्धी नहीं था। किन्तु अवशेष पाँच दर्शनों ने मोक्ष पर चिन्तन किया है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि इन वैदिक दर्शनों में आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में जैसा विचार-भेद है, वैसा मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में भी चिन्तन-भेद है । यहाँ तक कि एक-दूसरे दर्शन की कल्पना पृथक्-पृथक् ही नहीं अपितु एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत भी है । जिन दर्शनों ने उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र आदि को अपना मूल आधार माना है उनकी कल्पना में भी एकरूपता नहीं है । कोई परम्परा जीवात्मा और परमात्मा में भेद मानती है, कोई सर्वथा अभेद मानती है और कोई भेदाभेद मानती है । कोई परम्परा आत्मा को व्यापक मानती है तो कोई अणु मानती है । कोई परम्परा आत्मा को अनेक मानती है तो कोई एक मानती है, पर यह एक सत्य-तथ्य है कि वैदिक परम्परा के सभी दार्शनिकों ने किसी न किसी रूप में आत्मा को कूटस्थनित्य माना है। न्याय-वैशेषिक दर्शन
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद और न्यायदर्शन के प्रणेता अक्षपाद ये दोनों आत्मा के सम्बन्ध में एकमत हैं। दोनों ने आत्मा को कूटस्थनित्य माना है। इनकी दृष्टि में आत्मा एक नहीं अनेक हैं, जितने शरीर हैं उतनी आत्माएँ हैं । यदि एक ही आत्मा होती तो हम विराट विश्व में जो विभिन्नता देखते हैं वह नहीं हो सकती थी।
न्याय और वैशेषिक दर्शन ने आत्मा को चेतन कहा है । उनके अभिमतानुसार चेतना आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं अपितु आगन्तुक (आकस्मिक) गुण है। जब
1 अध्यात्म विचारणा, पृ० ७४ ।।
(क) मुण्डकोपनिषद १।१।६ (ख) वैशेषिक सूत्र ७।१।२२ (ग) न्यायमंजरी
(विजयनगरम) पृ० ४६८ (घ) प्रकरण पंजिका, पृ० १५८ । ३ (क) बृहदारण्यक उपनिषद ५।६।१ (ख) छान्दोग्य उपनिषद ५।१८।१ (ग) मंत्री
उपनिषद ६।३८ ।
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