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८ | चिन्तन के विविध आयाम [ खण्ड २ ]
सृष्टि का निर्माण करती है, सृष्टि का संरक्षण और संहार करती है। वह सत्ता, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के रूप में विश्रुत है । यदि परमात्मा की कृपा हो जाये तो पापी से पापी जीव भी स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है। उसकी प्रसन्नता से ही जीवन में सुख-शान्ति की बंशी बजने लगती है, आनन्द का सरसब्ज बाग लहराने लगता है । यदि भगवान किंचित् मात्र भी अप्रसन्न हो जाते हैं तो नरक की दारुण वेदनाएं मिलती हैं । कष्टों की काली कजराली घटाएं उमड़-घुमड़ कर मंडराने लगती हैं । वह चाहे जिसे तिरा सकता है और चाहे जिसे डुबा सकता है । तिराना और डुबाना उसी परम सत्ता के हाथ में है । उसकी बिना इच्छा के पेड़ का एक पत्ता भी हिल नहीं
सकता 11
ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं
श्रमण संस्कृति ने ईश्वर को जगत का कर्ता व संहर्ता नहीं माना है । पाश्चात्य चिन्तक जब तक श्रमण संस्कृति के सम्पर्क में नहीं आये तब तक उनका यह मानना था कि बिना ईश्वर के कोई भी धर्म नहीं हो सकता क्योंकि इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि भारतीयेतर धर्मों में भी ईश्वर को प्रमुख स्थान दिया गया था, अत: उन्हें अपनी मान्यताओं व परिभाषाओं में परिवर्तन करना पड़ा। जैन धर्म ने सर्वशक्तिसम्पन्न ईश्वर के स्थान पर कर्म की संस्थापना की । उसका अभिमत है कि अनादि काल से जो यह संसार चक्र चल रहा है वह कर्म के कारण है । कर्म के कारण ही सुख और दुःख उपलब्ध होता है । जब तक जीव के साथ कर्म है तब तक संसार है । भव-भ्रमण है । कर्म नष्ट होते ही संसार भी नष्ट हो जाता है । कर्म ही संसार की व्यवस्था करता है । जैन धर्म के प्रस्तुत कर्मवाद सिद्धान्त का भारतीय अन्य दर्शनों पर भी अत्यधिक प्रभाव पड़ा जिसके फलस्वरूप ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने वाले उन दर्शनों ने भी कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया। उन्होंने यह कहा कि ईश्वर अपनी इच्छा से किसी भी प्राणी को सुख-दुःख प्रदान नहीं करता । वह तो उस प्राणी के कर्म के आधार से ही सुख-दुःख आदि फल प्रदान करता है । जैन संस्कृति ने कर्म की महत्ता को स्वीकार करके भी यह स्पष्ट किया कि आत्मा अपने पुरुषार्थ से कर्म को नष्ट कर सकता है | आत्मा अलग है और कर्म अलग है । कर्म जड़ है और आत्मा चेतन है, यों कर्म अत्यधिक बलवान है किन्तु आत्मा की शक्ति उससे बढ़कर है वह चाहे तो प्रबल प्रयास से कर्म शत्रुओं को नष्ट कर पूर्ण सर्वतन्त्र स्वतन्त्र बन सकता है । जैनाचार की मूलमित्ति: अहिंसा
जैन दृष्टि से जीव की दो स्थितियाँ हैं - एक अशुद्ध है और दूसरी शुद्ध है ।
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ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा । अन्यो जन्तुरमीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ॥
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- स्याद्वाद्मंजरी, पृष्ठ ३० ।
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