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सांस्कृतिक परम्परा तुलनात्मक अध्ययन | ७ श्रमण संकृति ने जनभाषा का उपयोग किया है। उसका यह स्पष्ट मन्तव्य था कि भाषा एक दूसरे के साथ सम्पर्क स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम है । उसका उद्देश्य है अपने भीतर के जगत् को दूसरों के भीतरी जगत में उतारना । यही भाषा की उपयोगिता है । भाषा बड़प्पन का मापदण्ड नहीं है । अतः महावीर ने अभिजात्य भाषा या पण्डितों की भाषा न अपना कर उस समय की जनभाषा प्राकृत को अपनाया । वह भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती थी अतः वह अर्धमागधी कहलाती थी । अर्धमागधी उस समय की एक प्रतिष्ठित लोकभाषा थी। प्राकृत का अर्थ है-प्रकृति जनता की भाषा । इसी तरह तथागत बुद्ध ने भी जन बोली पाली को अपनाया था। पर ब्राह्मण संस्कृति ने जन-भाषा की उपेक्षा की, उसने सालंकृत संस्कृत भाषा को अपनाया और उसी भाषा का प्रयोग करने में बड़प्पन का अनुभव किया । उन्होंने प्राकृत और पाली भाषा के विरोध में भी अपना स्वर बुलन्द किया और कहाये भाषाएँ मूों की भाषाएँ हैं, और कम पढ़ी-लिखी स्त्रियों की भाषाएँ हैं । प्राचीन नाटकों में शूद्र और महिला पात्रों के मुंह से उन भाषाओं का प्रयोग कराकर ब्राह्मण विज्ञों ने उन भाषाओं के प्रति अपने हृदय का आक्रोश भी व्यक्त किया है । श्रमण संस्कृति में 'देवाणुप्पिया' यह शब्द देवताओं के वल्लभ यानि अत्यन्त आदर का सूचक रहा है जबकि ब्राह्मण संस्कृति में ‘देवानां प्रिय' यह शब्द मूर्ख के लिए व्यवहृत हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है एक संस्कृति के अनुयायी दूसरी संस्कृति का विरोध करने में अपना गौरव अनुभव करते रहे हैं।
सृष्टि अनादि है श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति में एक मुख्य अन्तर यह भी रहा है कि श्रमण संस्कृति ने किसी एक परम तत्व की सत्ता को स्वीकार नहीं किया है, जो सृष्टि का निर्माण संरक्षण और संहार करती हो । श्रमण संस्कृति का यह दृढ़ मंतव्य है कि यह सृष्टि अनादि है, इसका निर्माता कोई ईश्वर नहीं है । संसार, चक्र की भांति अनादि काल से चल रहा है। व्यक्ति जिस प्रकार के कर्म करता है उसी प्रकार वह चार गतियों में परिभ्रमण करता है । अशुभ कर्मों की प्रबलता होने पर उसे नरक गति की भयंकर यातनाएँ मिलती हैं, शुभ कर्मों की प्रबलता होने पर स्वर्ग के रंगीन सुख प्राप्त होते हैं और शुद्ध की प्रबलता होने पर मुक्त होता है । संसार चक्र से मुक्त होने के लिए ही साधनाएं हैं । साधना के लिए प्रबल पुरुषार्थ अपेक्षित है । साधक को ही सब कुछ करना है । ब्राह्मण संस्कृति ने एक परम सत्ता को स्वीकार किया है वही
1 (क) अद्धमागहाए भासाए भासइ अरिहा धम्म ।
-औपपातिक सूत्र ५६ (ख) मगद्धविसय भासाणिबद्ध अद्धमागहं, अट्ठारस देसी भासाणिमयं वा अद्धमागहं ।
-निशीथचूर्णि
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