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________________ ६ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] उदाहरण हैं । जाति-पाँति, भेद-भाव की दीवारों को तोड़ने में श्रमण संस्कृति का प्रमुख हाथ रहा है । 'मनुष्य जाति एक है' एक ऊँचा और एक नीचा मानना मानवता का अपमान है। ___ब्राह्मण संस्कृति में ब्राह्मण की प्रमुखता रही है। वह सर्वश्रेष्ठ माना गया है । उसके सामने अन्य वर्ण हीन माने गये । शूद्रों को तो वेद पढ़ने का अधिकार ही नहीं दिया गया। यहाँ तक कि शूद्र के कान में वेद की ऋचाएँ गिर जाती तो उनके कर्ण-कुहरों में गर्मागर्म शीशा उड़ेल कर प्राणदण्ड दिया जाता था। उनके साथ दानवतापूर्ण व्यवहार किया जाता। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का उन्हें कोई अधिकार नहीं था। इसी तरह ब्राह्मण संस्कृति ने महिला वर्ग को भी अत्यन्त हीन दृष्टि से देखा । उनके लिए भी वेदों का अध्ययन निषिद्ध माना गया जबकि जैन संस्कृति ने स्पष्ट उद्घोष किया कि महिलाएँ भी केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर सकती हैं और मुक्ति को वरण कर सकती हैं। इस तरह 'वसुधैव कुटुम्बकम्' 'विश्वं भवत्येक नीडम्' का उद्घोष करके भी ब्राह्मण संस्कृति ने जाति-पांति, ऊँच-नीच की स्थिति समाज में उत्पन्न की । ब्राह्मण वर्ण की ही महत्ता रही, और उसमें भी पुरुष वर्ग की ही। निवृत्ति और प्रवृत्ति श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति में मुख्य अन्तर यह भी रहा है कि श्रमण संस्कृति निवृत्तिप्रधान है, उसकी सम्पूर्ण आचार संहिता निवृत्तिपरक है । उसने मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को रोकने पर बल दिया । यहाँ तक कि कोई भी पापकारी कार्य न स्वयं करना, न दूसरों को उस कार्य को करने के लिए उत्प्रेरित करना और न करने वाले का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काया से । इस तरह श्रमण के नव कोटि का प्रत्याख्यान होता है। उसकी प्रवृत्ति केवल संयम साधना, तपः आराधना के लिए ही होती है, शेष कार्य के लिए नहीं। जबकि ब्राह्मण संस्कृति प्रवृत्तिप्रधान है । यज्ञ, याग, कर्मकाण्ड उसके फलाफल की जो भी चर्चाएं हैं वे सभी प्रवृत्ति की दृष्टि से ही हैं । श्रमण संस्कृति की जो भी धार्मिक साधनाएँ हैं वे सभी साधनाएँ व्यक्तिपरक हैं जबकि ब्राह्मण धर्म की साधनाएं समाजपरक रही हैं। समाज को संलक्ष्य में रखकर ही वहां साधनाएँ चली हैं । यह सत्य है कि श्रमण संस्कृति ने बाद में चलकर समाज व्यवस्था अपनाई और सामूहिक साधना पर उसने भी बल दिया। जनभाषा श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति में यह भी एक मुख्य अन्तर रहा है कि 1 न स्त्रीशूद्रो वेदमधीयेताम् । 2 वेदमुपशृण्वतस्तस्य जतुभ्यां श्रोत्रः प्रतिपूरणमुच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः । -गौतम धर्मसूत्र पृ० १६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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