________________
सांस्कृतिक परम्परा: तुलनात्मक अध्ययन | ५
उनके कदम कुछ शिथिल प्रतीत होते हैं । वैदिक परम्परा में ही मीमांसक दर्शन आदि की कुछ ऐसी विचारधारा भी रही है कि उन्होंने ज्ञान की सर्वथा उपेक्षा भी की है। उनका मत है कि ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है, क्रिया की आवश्यकता है। बिना क्रिया के ज्ञान भार रूप है 'ज्ञानं भारः क्रियां बिना ' अतः वेदोक्त क्रियाकाण्ड विधि-विधान करते रहना चाहिए। जानना मुख्य नहीं है, आचरण मुख्य है । ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष जैन संस्कृति ने न केवल ज्ञान को महत्व दिया है और न केवल क्रिया को ही । उसका यह स्पष्ट अभिमत है कि ज्ञान के अभाव की केवल क्रिया थोथी है, निष्प्राण है, अंधी है । विचाररहित कोरा आचरण भव-भ्रमण का कारण है, इसी तरह कोरा ज्ञान या विचार लंगड़ा है, गतिहीन है, आध्यात्मिक प्रगति का बाधक है । जब तक ज्ञान और क्रिया, विचार और आचार दोनों पृथक्-पृथक् रहते हैं वहाँ तक अपूर्ण हैं। दोनों का समन्वय होने पर ही वे पूर्ण होते हैं । उच्च विचार के साथ उच्च आचार की भी आवश्यकता है । अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरने के लिए पक्षी को स्वस्थ और अविकल दोनों पांखें अपेक्षित हैं वैसे ही साधना के अनन्त आकाश में आध्यात्मिक उड़ान भरने के लिए ज्ञान और क्रिया, आचार और विचार को स्वस्थ पाँखें परमावश्यक हैं । यदि एक ही पाँख स्वस्थ है और दूसरी पाँख सड़ चुकी है, या नष्ट हो चुकी है, तो वह पक्षी अनन्त आकाश में उड़ नहीं सकता, वह चाहे कितना भी प्रयास कर ले सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए उसने ज्ञान और क्रिया इन दोनों का समन्वय किया ।
जैन संस्कृति ने जितना ज्ञान पर बल दिया है उतना ही चारित्र पर भी दिया है । यही कारण है कि जैन संस्कृति का श्रमण पूर्ण अपरिग्रही होता है । न उसके स्वयं का कोई आवास होता है और न स्त्री आदि ही । स्त्री आदि के स्पर्श आदि का भी स्पष्ट रूप से निषेध है । वह कनक और कांता दोनों का त्यागी होता है ।
श्रमण और ब्राह्मण संस्कृति में दूसरा मुख्य अन्तर यह है कि श्रमण संस्कृति प्रभाव से ब्राह्मण संस्कृति ने 'संन्यास' को तो स्वीकार किया पर संन्यास को वह उतनी प्रमुखता नहीं दे सका, जितनी गृहस्थाश्रम को दी । गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का मूल है। स्मृतिकारों ने उसे सर्वाधिक महत्व दिया है । उसे ही सब आश्रमों में मुख्य माना । श्राद्ध आदि के लिए सन्तान आवश्यक मानी गई जबकि श्रमण संस्कृति में श्रमण ही प्रमुख रहा । वही पूर्ण आध्यात्मिक उत्कर्ष कर सकता है। श्रमण संस्कृति किसी वर्ण विशेष को प्रमुखता नहीं दी । यद्यपि सभी तीर्थंकर क्षत्रिय वर्ण में ही हुए, पर क्षत्रिय वर्ण 'सर्वश्रेष्ठ है यह बात नहीं है । शूद्र भी यदि चारित्रनिष्ठ है तो वह क्षत्रियों के द्वारा पूज्य है, अर्चनीय है । हरिकेशी और मेतार्य' इसके ज्वलंत
1
उत्तराध्ययन १२वाँ अध्ययन |
2 आवश्यक मलयगिरिवृत्ति पत्र ४७७-४७८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org