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सांस्कृतिक परम्परा : तुलनात्मक अध्ययन | E
संसार अवस्था अशुद्ध अवस्था है और सिद्ध अवस्था पूर्ण शुद्ध अवस्था है। संसार अवस्था में कितने ही जीव बहिर्मुखी हैं जो राग-द्वेष में तल्लीन होकर प्रतिपल-प्रतिक्षण नित-नूतन कर्म बाँधते रहते हैं । उन्हें विषय वासना में राग-द्वेष में आनन्द को अनुभूति होती है पर जब भेद-विज्ञान के द्वारा विवेक दृष्टि प्राप्त होती है तब उसे यह परिज्ञात होता है कि आत्मा और कर्म ये पृथक्-पृथक् हैं । मैं जड़ स्वरूप नहीं चेतन स्वरूप हूँ। मेरा स्वभाव वर्ण, गंध, रस, युक्त नहीं अरूपी है । प्रस्तुत विश्वास ही जैन दर्शन की परिभाषा में सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर साधक विशुद्ध आध्यात्मिक साधना की ओर अग्रसर होता है। वह अहिंसा आदि महाव्रतों को धारण कर जीवन को चमकाता है । ब्राह्मण संस्कृति के मूर्धन्य मनीषीगण अपने सुख और शान्ति के लिए यज्ञ करते थे और उस यज्ञ में बत्तीस लक्षण वाले मानवों की तथा पशुओं की बलि देते थे । भगवान महावीर ने उस घोर हिंसा का विरोध किया। अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या की ।
ब्राह्मण परम्परा के तपस्वीगण पंचाग्नि तप तपते थे । नदी, समुद्र, तालाब, कुण्ड व वाटिकाओं में स्नान करने में धर्म मानते थे । भगवान पार्श्व और महावीर ने उसका भी विरोध किया और कहा कि अग्नि और पानी में जीव है। अतः उनकी विराधना करने में धर्म कदापि नहीं हो सकता । धर्म हिंसा में नहीं, अहिंसा में है । द्रव्य शुचि प्रमुख नहीं, भाव-शुचि प्रमुख है । यदि स्नान से ही मुक्ति होती हो तो फिर मछलियाँ जो रात-दिन पानी में ही रहती हैं उनकी मुक्ति हो जायेगी । ब्राह्मण परम्परा के ऋषियों ने कन्द-मूल आदि के आहार पर बल दिया। जैन परम्परा ने उसे भी अहिंसा की दृष्टि से अनुचित माना। उन्होंने कहा कन्द-मूल में अनन्त जीव होते हैं । अनन्तकाय का उपयोग करना साधकों के लिए अनुचित है।
___ आचारांग सूत्र में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव है इस बात को स्पष्ट किया है । अहिंसा का जो सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है वह अपूर्व है । जैन आचार का भव्य प्रासाद अहिंसा की इसी मूल भित्ति पर अवस्थित है । जैन संस्कृति ने प्रत्येक क्रिया में अहिंसा को स्थान दिया है । चलना, उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना प्रभृति जीवन सम्बन्धी कोई भी क्रिया क्यों न हो यदि उसमें अहिंसा का आलोक जगमगा रहा है तो वह क्रिया पाप का अनुबन्धन करने वाली नहीं होगी। वाणी और व्यवहार में सर्वत्र अहिंसा की उपयोगिता स्वीकार की गई है। श्रमण के
1 (क) आचारांग ११ ।
(ख) दशवकालिक ४ अध्ययन 2 औपपातिक सूत्र ३८, पृ. १७०-१७१
जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए । जयं भुजंतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ।।
-दशवकालिक ४।८ ।
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