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________________ २ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] तक अच्छी तरह से जीऊं । सौ वर्ष तक मेरी भुजाओं में अपार बल रहे। सौ वर्ष तक मेरे पैरों में अंगद की तरह शक्ति रहे । सौ वर्ष तक मेरी नेत्र ज्योति पूर्ण निर्मल और तेजस्वी रहे । प्रभृति उद्गारों से यह स्पष्ट है कि उसका लक्ष्य तन को सुदृढ़ बनाने का था। भौतिक वैभव को प्राप्त करने का था। भौतिक वैभव को प्राप्त करने के लिए अहर्निश प्रबल प्रयास भी करते रहे। किन्तु श्रमण संस्कृति आत्म-विजेता को संस्कृति है। उसने तन की अपेक्षा आत्मा को पुष्ट बनाने पर अत्यधिक बल दिया है। आत्मा किस तरह विकारों से मुक्त हो इसके लिए तप, जप और संयम साधना को अपनाने के लिए उत्प्रेरित किया। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त ध्वंसावशेषों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि श्रमण संस्कृति के उपासक आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए सतत तत्पर रहे हैं। ध्यान मुद्रा में अवस्थित उनकी वे मुद्राएँ इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं । ब्रह्मविद्या और आत्मविद्या भारतीय साहित्य के मूर्धन्य मनीषियों का यह अभिमत है कि उपनिषद् युग में जिस ब्रह्मविद्या का विस्तार से विश्लेषण हुआ है वह ब्रह्मविद्या पहले यज्ञविद्या थी फिर आत्म-विद्या के रूप में विश्रुत हुई । आत्म-विद्या के पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे जो श्रमण संस्कृति के उपासक थे। आत्म-विद्या को प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण भी क्षत्रियों के पास पहुंचे थे, और उन्होंने उनसे आत्म-विद्या प्राप्त की थी। श्रमण संस्कृति ने आत्म-बल से ही ब्राह्मण संस्कृति पर अपनी विजय वैजयन्ती फहराई । वैदिक काल आत्मा, कर्म आदि की गम्भीर चर्चाएँ नहीं के समान हैं पर उपनिषद् युग में उन विषयों पर चर्चाएँ जमकर हुई हैं। पहले ब्रह्म का अर्थ यज्ञ, उसके मंत्र व स्तोत्र आदि थे पर श्रमण संस्कृति के प्रबल प्रभाव से ब्रह्म का अर्थ आत्मा व परमात्मा हो गया। संस्कृतियों का परस्पर प्रभाव ऐतिहासिक विज्ञों का यह मन्तव्य है कि प्राचीन उपनिषदों का रचना काल वही है जो भगवान पार्श्व और महावीर का है। अतः उस काल में एक [क्रमशः] पूर्वम शरदः शतम् । भवेम शरदः शतम् । भूषेम शरदः शतम् । भूयसीः शरदः शतम् ॥- अर्श्व० १६।६७।१-८ । 1 छान्दोग्य उपनिषद् ५।३, ५।११। 2 (क) देखिए-लेखक का 'भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन', पृष्ठ १८-१६ । [क्रमशः] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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