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________________ सांस्कृतिक परम्परा : तुलनात्मक अध्ययन आध्यात्मिक विजय जैन धर्म एक महान विजेता का धर्म है। सुनहरे अतीत का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि मानव सदा से ही विजेता का उपासक रहा है। विजेता के चरणों में उसका सिर नत होता रहा है, उसकी वह अर्चना व अभ्यर्थना करता रहा है । 'इन्द्र' और 'जिन' ये दोनों ही विजेता रहे हैं, पर दोनों की विजय में दिन-रात की तरह अन्तर है । इन्द्र ने अपनी भौतिक शक्ति से विरोधी शक्तियों को नष्ट कर दिया था जिससे कि वे पुनः अपना सिर न उठा सकें और वह विजेता के गौरवपूर्ण पद को सदा अलंकृत करता रहे। उसकी वह विजय भौतिक शक्तियों पर थी। उसने विरोधियों के अन्तर्मानस में एक भयंकर आतंक पैदा किया था, उसकी विजय तन पर थी, मन पर नहीं; किन्तु जिन की विजय आध्यात्मिक थी, वह दूसरों पर नहीं अपने ही विकारों पर थी, वासना पर थी। उन्होंने मोह राजा की विराट् सेना को पराजित किया, क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व के सेनापतियों को परास्त किया, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय को नष्ट कर वे जिन बने, यह उनकी आध्यात्मिक विजय थी। इन्द्र और जिन भारत की पावन पुण्य धरा पर दो प्रमुख संस्कृतियों ने जन्म लिया, वे यहाँ पर खूब फली-फूली और विकसित हुई हैं। उन दो संस्कृतियों में एक इन्द्र की उपा. सना करती रही है तो दूसरी जिन की। इन्द्र की उपासना करने वाली संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है तो जिन की उपासना करने वाली संस्कृति श्रमण संस्कृति है । ब्राह्मण संस्कृति बाह्य विजेताओं की संस्कृति है । उसने बाह्य शक्ति की अभिवृद्धि के लिए अथक प्रयास किया है। उसकी सतत् यही भावना रही है कि मैं सौ वर्ष 1 (क) ऋग्वेद ७।६-६।१६ । (ख) यजुर्वेद ३६।२४ । (ग) पश्येम शरदः शतम् । जीवेम शरदः शतम् । बुध्येम शरदः शतम् । रोहेम शरदः शतम् ।। [क्रमशः] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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