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________________ सांस्कृतिक परम्परा : तुलनात्मक अध्ययन | ३ संस्कृति का दूसरी संस्कृति पर प्रभाव पड़ा। एक दूसरे ने एक दूसरे की विचार - धारा को व शब्दों को ग्रहण किया । ब्राह्मण संस्कृति के उपासक अपने आप को आर्य मानते थे, और श्रमण संस्कृति के उपासकों को आर्येतर मानते थे । श्रमण संस्कृति ने आर्य शब्द को अपनाया । जो ज्येष्ठ व श्रेष्ठ व्यक्ति थे उनके लिए 'आर्य' शब्द व्यवहृत होने लगा । आगम साहित्य में अनेकों स्थलों पर आर्य शब्द आया है । नन्दीसूत्र' व कल्पसूत्र' की स्थविरावली में 'अज्ज' शब्द आचार्यों के लिए प्रयुक्त हुआ है । ब्राह्मण शब्द पहले केवल वैदिक परम्परा के एक समुदाय विशेष के लिए ही प्रयुक्त होता था, पर श्रमण संस्कृति ने 'ब्राह्मण' शब्द को भी अपनाया । उत्तराध्ययन' के पच्चीसवें अध्ययन में ब्राह्मण शब्द की विस्तार से व्याख्या की कि 'ब्राह्मण' वह है जिसका जीवन सद्गुणों से लहलहा रहा है जो उत्कृष्ट चारित्र सम्पन्न श्रमण है, वह ब्राह्मण है । ब्राह्मण शब्द भी श्रमण संस्कृति में श्रमण के लिए प्रयुक्त हुआ है । जैन संस्कृति की भाँति बौद्ध संस्कृति में भी वह श्रमण के अर्थ में आया है । धम्मपद' का ब्राह्मणवर्ग और सुत्तनिपात का वामेट्ठसुत्त इस कथन के साक्ष्य हैं । ब्राह्मण साहित्य में ब्रह्मचर्य का अर्थ वेदों के पठन के अर्थ में रहा है । इसीलिए ब्रह्मचर्याश्रम उसे कहा गया है । श्रमण परम्परा में 'ब्रह्मचर्य' आचार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है | आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययनों को इसीलिए ब्रह्मचर्य अध्ययन 7 कहा है और बौद्ध परम्परा में वही ब्रह्मविहार के रूप में विश्रुत रहा है। ब्रह्मचर्य से लौकिक आचार-विचार नहीं किन्तु आध्यात्मिक समुत्कर्ष करने वाला आचार लिया है । ब्राह्मण संस्कृति में पहले तीन ही आश्रम थे किन्तु श्रमण संस्कृति के प्रभाव से 1 [क्रमशः ] (ख) दी वेदाज पृ. १४६ १४८, एफ० मेक्समूलर । (ग) पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्सियन्ट इण्डिया, पृष्ठ ५२, एच. सी. रायचौधरी । (घ) इण्डियन फिलोसफी, भाग १, पृ. १४२, डा. राधाकृष्णन् । शतपथ ब्राह्मण ( काण्व शाखा ४ | १ | ६ ) | (ख) ऋग्वेद ( ११५१, ६।२०१, २५।१।२ । अथर्ववेद ४।२०४, ८ । 2 नन्दी, स्थविरावली २६-२६ ॥ 3 कल्पसूत्र - स्थविरावली, सूत्र २०२-२२२ । 4 उत्तराध्ययन २५।१६-२६ । 5 धम्मपद, ब्राह्मण वर्ग ३६ । 6 सुत्तनिपात वासेट्ठत्त ३५; २४५ अध्याय । 7 (क) समवायांग प्रकीर्णक ६, सूत्र ३ । (ख) आचारांगनिर्युक्ति, गाथा ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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