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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
की मान्यता है कि छान्दोग्योपनिषद् में भगवान् अरिष्टनेमि का नाम 'घोर आंगिरस ऋषि' आया है। घोर आंगिरस ऋषि ने श्री कृष्ण को आत्मयज्ञ की शिक्षा प्रदान की थी। उनकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा, सत्यवचन रूप थी। धर्मानन्द कौशाम्बी का मानना है कि आंगिरस भगवान् नेमिनाथ का ही नाम था। घोर शब्द भी जैन श्रमणों के आचार और तपस्या की उग्रता बताने के लिए आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर व्यवहृत हुआ है। - छान्दोग्योपनिषद् में देवकीपुत्र श्रीकृष्ण को घोर आङ्गिरस ऋषि उपदेश देते हुए कहते हैं-अरे कृष्ण ! जब मानव का अन्त समय सन्निकट आये तब उसे तीन वाक्यों का स्मरण करना चाहिए
(१) त्वं अक्षतमसि-तू अविनश्वर है। (२) त्वं अच्युतमसि-तू एक रस में रहने वाला है। (३) त्वं प्राणसंशितमसि-तू प्राणियों का जीवनदाता है।"
श्रीकृष्ण इस उपदेश को श्रवण कर अपिपास हो गये, उन्हें अब किसी भी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं रही। वे अपने आपको धन्य अनुभव करने लगे।
प्रस्तुत कथन की तुलना हम जैन आगमों में आये हए भगवान अरिष्टनेमि के भविष्य कथन से कर सकते हैं। द्वारिका का विनाश और श्रीकृष्ण की जरत्कुमार के हाथ से मृत्यु होगी, यह सनकर श्रीकृष्ण चिन्तित होते हैं । तब उन्हें भगवान् उपदेश सुनाते हैं । जिसे सुनकर श्रीकृष्ण सन्तुष्ट एवं खेदरहित होते हैं ।+ २. अतः यत् तपोदानमार्जवहिंसासत्यवचनमितिता अस्य दक्षिणा।
-छान्दोग्य उपनिषद् ३३१७४ ३. भारतीय संस्कृति और अहिंसा–पृ० ५७ ४. घोरतवे, घोरे, घोरगुणे, घोर तवस्सी, घोरबंभचेरवासी।
-भगवती ११ ५. तद्ध तद् घोरं आङ्गिरस; कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचाऽपिपास
एव स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्य ताक्षतमस्यच्युतमसि प्राणस शितमसीति । -छान्दोग्योपनिषद् प्र० ३, खण्ड १८
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