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________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण अनेक प्रयत्न किए किन्तु इसने मेरी एक भी बात स्वीकार नहीं की। इसकी सदा एक ही रट लगी रही कि मुझे अग्नि में जलना स्वीकार है किन्तु मैं तुम्हारे साथ विवाह नहीं करूंगी। मैं देखना चाहता था कि यह कैसे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहती है। मैं इसे कह रहा थाया तो तू मुझे वरण कर या अग्निकुड में कूदकर अपने शरीर को भस्म कर डाल, किन्तु यह न तो आग में जलना चाहती थी और न मुझे वरण करना चाहती थी। यही प्रसंग चल रहा था कि अकस्मात् तुम आगये। अच्छा हुआ कि तुमने नारी हत्या के भयंकर पाप से बचा लिया। मित्र ! बताओ तुम्हारा परिचय क्या है ? मंत्रीपूत्र विमलबोध ने राजकूमार अपराजित का विस्तार से परिचय दिया। यह सब वार्तालाप चल ही रहा था कि इतने में रत्नमाला के माता-पिता भी उसको खोज करते हए वहां पहच गये। उन्होंने उसी समय रत्नमाला का पाणिग्रहण अपराजितकुमार के साथ करा दिया। सूरकान्त विद्याधर को अपराजित ने अभयदान दिया। सूरकान्त ने प्रसन्न होकर अपराजित को वह मरिग, मूलिका और रूप-परविर्तनी गुटिका दी।६९ रत्नमाला को पिता के घर पर ही छोड़कर अपराजित और विमलबोध देश-विदेश की यात्रा करने के लिए प्रस्थित हुए। कुछ दूर जाने पर अपराजित को प्यास लगी। वह एक आम के वृक्ष के नीचे बैठ गया और विमलबोध को पानी ले आने को कहा। विमल बोध पानी लेने के लिए गया। जब पानी लेकर वह लौटा तब अपराजित कुमार वहाँ पर नहीं था। विमलबोध पानी लेकर इधर ६६. आख्यच्च मंत्रिसूस्तस्मै कुमारस्य कुलादिकम् । मुमुदे रत्नमालापि सद्योऽभीष्टसमागमात् ॥ पितरौ रत्नमालायाः पृष्ठतश्च प्रधाविनी । कीतिमत्यमृतसेनौ तदानीं तत्र चेयतुः ।। ताभ्यां दत्तां रत्नमालामुपयेमेऽपर। जितः । तयोरेव गिरा दत्त सूरकान्ताय चामयम् ।। कुमारे निःस्पृहे सूरकान्तस्ते मणिमूलिके । आर्पयन्मंत्रिपुत्रस्य गुटिकाश्चान्यवेषदाः ।। -त्रिषष्टि० ८।१:३२०, ३२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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