SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अरिष्टनेमिः पूर्वभव तुम्हारे सामने उपस्थित हूं । ६४ विद्याधर -- तुमने मुझे पूरी तरह पराजित कर दिया है । मैं एक भयंकर भूल करने जा रहा था, उससे तुमने मुझे बचा लिया है। अब तुम मेरे शत्रु नहीं, मित्र हो । पहले तुम एक कार्य करो । मेरे वस्त्र के एक छोर में मरिण और मूलिका बंधी है | मरिण को पानी में धोकर उस धोवन से मूलिका घिसकर मेरे व्रणों पर लगाओ जिससे मैं पूर्ण स्वस्थ बन सकू ं । अपराजित ने विद्याधर के कथनानुसार लेपन किया। देखते ही देखते जादू की तरह व्रण मिट गये और विद्याधर पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया । स्वस्थ होने पर विद्याधर ने अपना और उस युवती का परिचय देते हुए कहा - इस युवती का नाम 'रत्नमाला' है। यह विद्याधर की कन्या है । इसके पिता विद्याधर अमृतसेन ने एक बार किसी विशिष्ट ज्ञानी से प्रश्न किया था कि इसका पति कौन होगा ? ज्ञानी ने बताया- अपराजित कुमार इसका पति होगा ।" यह उसी समय से अपराजित कुमार के प्रति अनुरक्त हुई । रात-दिन उसी के ध्यान में लीन रहने लगी ।" मैं इसके मनोहारी रूप को देखकर मुग्ध हो गया । मैंने इसे अपने मन के अनुकूल बनाने के लिए ६४. भूयः प्रापय्य चैतन्यमुपचारैर्नभश्चरम् । ऊचे कुमारो युध्यस्व सहोऽसि यदि संप्रति ॥ ६५. मम वस्त्रांचलग्रन्थौ विद्यते मणिमूलिके । मणेस्तस्यांभसा घृष्ट्वा मूलिकां देहि मवणे | ६६. रथनूपुरनाथस्य दुहितामृत से स् रत्नमालेति ६७. वरोऽस्या युवापराजितो ६८. वहीं० ८।१।३१३ ज्ञानिनाचख्ये नाम Jain Education International - त्रिषष्टि० ८।१।३०७ ४१ विद्याधरपतेरियम् । नामतः ॥ - त्रिषष्टि० ० ८।१।३०६ — त्रिषष्टि० ८।१।३११ हरिणंदिनृपात्मजः । गुणरत्नैकसागरः ।। - त्रिषष्टि० ८।१।३१२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy