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________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण जाने पर देखा-एक कुण्ड में अग्नि धधक रही है। एक यवती उस अग्निकुण्ड के पास बैठी हुई है। उसकी आँखों से आँसूओं की धारा बह रही है। वह रह-रहकर पुकार रही है-'मेरी रक्षा करो, इस दुष्ट से मुझे बचाओ।' उस युवती के पास ही एक व्यक्ति हाथ में चमचमाती तलवार लेकर खड़ा है और तलवार दिखाकर युवती को कुछ संकेत कर रहा है। अपराजित ने यह लोमहर्षक दृश्य देखा और युवक को ललकारते हुए कहा-'इस अबला नारी पर तू अपनी शक्ति आजमा रहा है ! तुझे शर्म नहीं आती ? तेरी भुजाओं में शक्ति है तो मेरे साथ युद्ध कर ।६२ मेरे रहते तु इस नारी का बाल भी बांका नहीं कर सकता। यह सुनते ही वह युवक जो विद्याधर था, अपराजित की ओर लपका, पर अपराजित को वह परास्त न कर सका । अन्त में उसने अपराजित को नागपाश के द्वारा बांध दिया, किन्तु अपराजित ने एक ही झटके में नागपाश के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। विद्याधर युवक ने विद्या के द्वारा नाना प्रकार के शस्त्र निर्माण कर अपराजित पर प्रहार किया, किन्तु पुण्य की प्रबलता के कारण एवं असाधारण शारीरिक सामर्थ्य के कारण कोई भी शस्त्र अपराजित को पराजित न कर सका। रात्रि पूर्ण हुई। उषा की सुनहरी किरणें मुस्कराने लगीं। अपराजित ने झपटकर विद्याधर युवक की तलवार छीन ली, और उसी तलवार से उसके शरीर पर प्रहार किया। घाव गहरा लगा, मूर्छा खाकर युवक भूमि पर लुढक पड़ा। अपराजित ने उपचार कर उसकी मूर्छा दूर की और पुनः उद्बोधन के स्वर में कहा-- यदि अब भी सामर्थ्य हो तो आओ, तुम मेरे साथ युद्ध करो, मैं ६२. आचिक्षेप कुमारस्तमुत्तिष्ठस्व रणाय रे । अबलायां किमेतत्ते पुरुषाधम पौरुषम् ॥ .-त्रिषष्टि० ८।१।२६८ ६३. पूर्वपुण्यप्रभावाच्च देहसामर्थ्यतोऽपि च । कुमारे प्राभवंस्तस्य प्रहारा न मनागपि ।। -त्रिषष्टि० ८।१।३०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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