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________________ ३८ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण लगाम ढीली की त्यों ही घोड़े रुक गये । एक ओर कल-कल छल-छल करते हुए झरने बह रहे थे, हरियाली लहलहा रही थी, दूसरी ओर हिरण चौकडियाँ भर रहे थे। वन्यपशु इधर से उधर छलांग मार रहे थे। प्राकृतिक सौन्दर्य को निहार कर वे बहत हो प्रसन्न थे। दोनों परस्पर वार्तालाप कर रहे थे कि उसी समय जंगल में से किसी मानव की आवाज आयी- 'रक्षा करो, मेरी रक्षा करो, बचाओ !'५४ अपराजित ने देखा-एक व्यक्ति भय से कांप रहा है, उसको शारीरिक भाव-भंगिमा से ज्ञात हो रहा था कि वह शरण-दान मांग रहा है। अपराजित को देखकर और उसके निकट आकर वह चरणों में गिर पड़ा और सूबक-सुबक कर रोने लगा। अपराजित ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा-घबरा मत, मैं तेरी रक्षा करूगा ।५५ विमलबोध ने कहा-मित्र ! तुमने ये शब्द बिना विचारे कहे हैं। यदि यह कोई अपराधी हुआ तो रक्षण करने में तुम्हें जोर पड़ेगा। अपराजित--जो शरण में आ चुका है उसकी रक्षा करना क्षत्रियों का कर्तव्य है, शरणागत की जो रक्षा नहीं करता वह वस्तुतः क्षत्रिय नहीं है ।५६ उसी समय तलवारों को चमकाता हआ 'मारो, काटो' का भीषण शब्द करता हुआ शत्र सैन्य वहाँ आ पहचा। सेनानायक ने अपराजित से कहा--कृपया आप इस व्यक्ति को छोड़ दीजिए। इसने हमारे नगर को लूटा है। यह हमारा अपराधी है। ५४. त्रिषष्टि० ८।१।२७४ ५५. प्रवेपमानसाँगमस्थिरीभूतलोचनम् । मा भैपीरिति तं प्रोचे कुमार: शरणागतम् ॥ -त्रिषष्टि० ८।१।२७५ ५६. ऊचेऽपराजितोऽप्युच्चैः क्षत्रधर्मो ह्यसौ सदा । अन्यायी यदि वा न्यायी त्रातव्यः शरणागतः । --त्रिषष्टि० ८।१।२७७ ५७. त्रिषष्टि० ८।१२७८-२७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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