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अरिष्टनेमिः पूर्वभव
२६ गाँव से दूसरे गांव विहार कर रहा था। एक दिन मुझे दिशाभ्रम हो गया, जिससे सार्थ का साथ छूट गया। मैं एकाकी रह गया। इस भयंकर जंगल में कभी इधर और कभी उधर भ्रमण करता रहा। तीक्ष्ण कांटों से पैर बिंध गये । क्षुधा और तृषा से आक्रान्त होकर बेहोश हो गया। अब तुम्हारे उपचार से मैं स्वस्थ हुआ हूँ। मुनि ने उस समय धर्मोपदेश दिया। उपदेश को सुनकर सर्वप्रथम धनकुमार और धनवती के जीव को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हई । उन्होंने उस समय श्रावक धर्म को स्वीकार किया।१८
यथा समय धनकुमार राजसिंहासन पर आसीन हुआ। एक समय धनकुमार राजा को उद्यानपाल ने सूचना दी कि वर्षों पहले आपके सम्बन्ध में जिस वसुन्धर मुनि ने भविष्यवाणी की थी आज वे नगर के बाहर उद्यान में पधारे हैं। धनकुमार और धनवती दोनों मुनिराज के प्रवचन सुनने को गये। मुनि के उपदेश को सुनकर संसार से विरक्ति हुई। अपने पुत्र जयन्तकुमार को राज्य देकर दोनों ने संयम ग्रहण किया।९ उनके साथ उनके भ्राता धनदत्त और धनदेव ने भी संयममार्ग स्वीकार किया। धनमुनि और धनवती ने उग्र तप और जप की साधना कर एक मासिक अनशन के साथ आयुष्य पूर्ण किया।
१८. तो मुणिवरेण सिद्धतसिंधुसारेण वयणमग्गेण ।
सम्मद्दसणमंती धणस्स उवदंसिओ तत्थ ।। तद्दसणम्मि हरिसेण पुलइओ सो न माइ अंगेसु । विनायतस्सरूवो मुणिऊण कयत्थमप्पाणं । पभणेइ मुनिवरं सामि ! तुज्झ अइगुरुपसायवरतरुणो। भुवणत्तयस्स सारं फलं मए अज्ज संपत्त ।
-भव-भावना गा० ३६६-४०१ पृ० ३३ (ख) धनवत्या समं सोऽथ मुनिचन्द्रमुनेः पुरः । गृहस्थधर्म सम्यक्त्वप्रधानं प्रत्यपद्यत ।।
-त्रिषष्टि० ८।१।१२४ १६. वसुन्धराद्धनो दीक्षां धनवत्या सहाददे । धनभ्राता धनदत्तो धनदेवश्च पृष्ठतः ।।
-त्रिषष्टि० ८११३२ २०. त्रिषष्टि० ८।११
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