SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण समुद्र की तरह हैं। रणांगण में दुर्धर धनुर्धर हैं। वे धीर पुरुष हैं और युद्ध में कीर्ति प्राप्त करने वाले हैं। महान् कुल में पैदा हुए हैं। वज्र के भी टकड़े कर दें ऐसे बलवान् हैं। वे अर्ध भरत के अधिपति होते हैं। वे सौम्य हैं। राजवंश के तिलक के समान हैं, अजित हैं, अजित रथ हैं । बलदेव हाथ में हल रखते हैं। वासुदेव धनुष्य रखते हैं। वासूदेव शंख, चक्र, गदा, शक्ति और नन्दक धारण करते हैं। उनके मुकुट में श्रेष्ठ उज्ज्वल शुक्ल विमल कौस्तुभमणि होती है। कान में कुडल होते हैं जिससे उनका मुख-शोभायमान रहता है। उनकी आँखें कमल सदृश होती हैं। उनकी छातो पर एकावली हार लटका रहता है। उनके श्रीवत्स का लांछन है। सर्व ऋतु में संभवित ऐसे पंचरंगी सुगंधित सुन्दर पुष्पों की माला उनके गले में शोभायमान होती है, उनके अंगोपांग में ८०० प्रशस्त चिह्न शोभित होते हैं। वे मदमत्त श्रेष्ठ गजेन्द्र के सदृश ललितगति होते हैं। क्रौंच पक्षी के मधुर और गंभीर शारद स्वर जैसा उनका निनाद है। बलदेव नीले रंग के और वासदेव पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं। वे तेजस्वी, नरसिंह, नरपति, नरेन्द्र हैं। वे नरवृषभ हैं और देवराज इन्द्र के समान हैं। राजलक्ष्मी से शोभित वे राम और केशव दोनों भाई-भाई होते हैं । १२ जैन साहित्य में वसुदेव के पुत्र को ही वासुदेव नहीं कहा गया है। नौ वासुदेवों में केवल एक श्री कृष्ण ही वसुदेव के पुत्र हैं, अन्य नहीं। वासुदेव यह एक उपाधि विशेष है। जो तीन खण्ड के अधिपति होते हैं, जिनका तीन खण्ड पर एकच्छत्र साम्राज्य होता है वे वासुदेव कहलाते हैं। उन्हें अर्धचक्री भी कहा जाता है। यह पद निदानकृत होता है। वासुदेव के पूर्व प्रतिवासूदेव होते हैं, उनका भी तीन खण्ड पर साम्राज्य होता है। जीवन की सांध्यवेला में वे अधिकार के नशे में बेभान बन जाते हैं और अन्याय अत्याचार करने लगते हैं। उस अत्याचार को मिटाने के लिए वासुदेव उनके साथ युद्ध करते हैं। युद्ध में प्रतिवासुदेव वासुदेव से पराजित १३. समवायांग १५८ १२. समवायांग १५८ (ख आवश्यक नियुक्ति गा० ४१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy