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तीर्थङ्कर और वासुदेव
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होते हैं । युद्ध के मैदान में वासुदेव के हाथ से प्रतिवासुदेव की मृत्यु होती है, दूसरे शब्द में कहा जाय तो स्वचक्र से उनका हनन होता है । प्रति वासुदेव के तीन खण्ड के राज्य को वासुदेव प्राप्त कर लेते हैं । वासुदेव महान् वीर होते हैं, कोई भी युद्ध में उन्हें पराजित नहीं कर सकता। कहा जाता है कि वासुदेव अपने जीवन
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तीन सौ साठ युद्ध करते हैं, पर कभी भी किसी युद्ध में वे पराजित नहीं होते । वासुदेव में बीस लाख अष्टापदों की शक्ति होती है, किन्तु वे शक्ति का कभी भी दुरुपयोग नहीं करते । जैन परम्परा में वासुदेव को भी ईश्वर का अंश या अवतार नहीं माना है । वासुदेव शासक है, पर उपास्य नहीं । तिरेसठ श्लाघनीय पुरुषों में चौबीस तीर्थङ्कर ही उपास्य माने गये हैं । वासुदेव भी तीर्थङ्कर की उपासना करते हैं। भौतिक दृष्टि से वासुदेव उस युग के सर्वश्रेष्ठ अधिनायक होते हैं, पर निदानकृत होने से वे आध्यात्मिक दृष्टि से चतुर्थ गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ पाते । " वासुदेव स्वयं तीर्थङ्कर व श्रमणों की उपासना करते हैं । श्री कृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि के परमभक्त थे । जब अरिष्टनेमि द्वारका पधारते तब श्री कृष्ण अन्य कार्य छोड़कर उन्हें वन्दन के लिए अवश्य जाते । अरिष्टनेमि से श्री कृष्ण वय की दृष्टि से ज्येष्ठ थे तथापि आध्यात्मिक दृष्टि से अरिष्टनेमि ज्येष्ठ थे, अतः वे उनकी उपासना करते थे । १६
वैदिक दृष्टि में वासुदेव :
वैदिक परम्परा में वासुदेव को विष्णु का अवतार माना है
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१. समवायांग १५८
(ख) आवश्यक भाष्य गा० ४३
१५. समवायांग १५८
(ख) आवश्यक नियुक्ति ४१५
१६. अन्तकृद्दशांग
१७. ( क ) महाभारत, भीष्म पर्व अ० ६५
(ख) सर्वेषामाश्रयो विष्णुरैश्वर्य - विधिमास्थितः । सर्वभूतकृतावासो
वासुदेवेति चोच्यते ।
- महाभारत, शान्तिपर्व, अ० ३४७, श्लो० ६४
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