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उपसंहार
३४७ रिपुमदमर्दन श्रीकृष्ण कार्यक्षेत्र में कूदते हैं, अपने अनुपम साहस, असाधारण विक्रम, विलक्षण बुद्धि कौशल एवं अतुल राजनीतिपटता के बल कर आसुरी शक्तियों का दमन करते हैं। उनके प्रयासों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि अन्याय सदैव न्याय पर विजयी नहीं रह सकता। अन्त में तो न्याय की ही विजय होती है और न्याय-नीति की प्रतिष्ठा में ही विश्वशान्ति का मूल निहित है।
श्रीकृष्ण लोक-धर्म के संस्थापक हैं। इसी धर्म की नींव पर अध्यात्मधर्म का महल निर्मित होता है। इस दृष्टि से श्रीकृष्ण का स्थान भारतीय संस्कृति के इतिहास में अद्वितीय कहा जा सकता है। प्रत्येक क्षेत्र में उनका चमकता हुआ विशिष्ट व्यक्तित्व अगर आज भी श्रद्धास्पद बना हआ है तो यह स्वाभाविक है। उनके व्यक्तित्व में एकांगिता नहीं, सर्वांगीणता है। इसी व्यक्तित्व के कारण वैदिक परम्परा के अनुसार वे ईश्वर के पूर्णावतार कहलाए। जैन-साहित्य में भी उनकी महिमा का विस्तार से वर्णन हुआ और उन्हें भावी तीर्थंकर का सर्वोच्च पद प्रदान किया गया। ___ श्रीकृष्ण अपने युग में भी असाधारण पुरुष माने जाते थे । तात्कालिक राजाओं में तथा जनसाधारण में उनका बहुत मान था। उन्हें जो महत्ता और गरिमा अपने जीवन में प्राप्त हुई उससे सहज ही उनके चरित्र की उज्ज्वलता का अनुमान किया जा सकता है । भारतवर्ष में सदैव सदाचार को महत्त्व दिया गया है। सत्ता और विद्वत्ता की भी प्रतिष्ठा है पर सदाचार की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। सदाचार विहीन मनुष्य कितना ही विद्वान् अथवा सत्तासंपन्न क्यों न हो, हमारे देश में शिष्टसमुदाय द्वारा मान्य नहीं होता।
हमें खेद के साथ यह उल्लेख करना पड़ता है कि ब्रह्मवैवर्त्तपुराण एवं स्कंदपुराण आदि में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ कथित लीलाओं-क्रीड़ाओं का जो वर्णन किया गया है उसका श्रीकृष्ण के उज्ज्वल जीवन के साथ कोई सामंजस्य नहीं है । किस गूढ़ उद्देश्य से वह वर्णन किया गया है, समझ में नहीं आता। हमारा निश्चित मत है कि ऐसे सब वर्णन पीछे के हैं और श्रीकृष्ण जैसे महान् पुरुष के जीवन-चरित्र की ओट में अपने स्वैराचार का पोषण करने के लिए वे पुराणों में सम्मिलित कर दिए गए हैं। पश्चाद्वर्ती अनेक
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