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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
कठिन है । इस आत्मोत्सर्ग ने अभक्ष्य भक्षण करने वाले और अपने क्षणिक सुख के लिए दूसरों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने वाले क्षत्रियों की आंखें खोल दीं, उन्हें आत्मालोचन के लिए विवश कर दिया और उन्हें अपने कर्त्तव्य एवं दायित्व का स्मरण करा दिया । इस प्रकार परम्परागत अहिंसा के शिथिल एवं विस्मृत बने संस्कारों को पुनः पुष्ट, जागृत और सजीव कर दिया और अहिंसा की संकीर्ण बनी परिधि को विशालता प्रदान की- पशुओं और पक्षियों को भी अहिंसा की परिधि में समाहित कर दिया । जगत् के लिए भगवान् का यह उद्बोधन एक अपूर्व वरदान था और वह आज तक भी भुलाया नहीं जा सका है।
सर्वसाधारण में फैली हुई किसी बुराई को अपना पाप मानकर, उसके प्रतीकार के लिए कठोर से कठोर प्रायश्चित्त करना और ऐसा करके सर्वसाधारण के हृदय में परिवर्तन लाना एक ऐसी अमोघ विधि है जो अरिष्टनेमि के जमाने में सफल हुई और राष्ट्रपिता गांधी के समय में भी कारगर सिद्ध हुई । इस दृष्टि से भी भगवान् अरिष्टनेमि जगत् के लिए सदैव स्मरणीय हैं, आदर्श हैं और उनके जीवन से युग-युग के अग्रणी जन प्रेरणा लेते रहेंगे ।
दीक्षित होने के पश्चात् तो वे पूर्ण अहिंसा के ही प्रतीक बन जाते हैं और अपनी उत्कृष्ट साधना द्वारा कैवल्य प्राप्त करके, संसार को श्रेयोमार्ग प्रदर्शित करके शाश्वत सिद्धि प्राप्त करते हैं ।
वासुदेव श्रीकृष्ण का कार्यक्षेत्र भिन्न हैं । अरिष्टनेमि आध्यात्मिक जगत् के सूर्य हैं तो श्रीकृष्ण को राजनीति क्षेत्र का सूर्य कहा जा सकता | तात्कालिक परिस्थितियों का आकलन करने से विदित होता है कि श्रीकृष्ण के समय में राजकीय स्थिति बड़ी बेढंगी थी । क्षत्रिय नृपतिगण प्रजारक्षण के अपने सामाजिक दायित्व को विस्मृत कर अधिकार-मद से मतवाले बन गए थे । एक ओर कंस के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे । दूसरी ओर जरासन्ध अपने बल पराक्रम के अभिमान के वशीभूत होकर नीति- अनीति के विचार को तिलांजलि दे बैठा था। तीसरी ओर शिशुपाल अपनी प्रभुता से मदान्ध हो रहा था तो चौथी ओर दुर्योधन अपने सामने सब को तृणवत् समझकर न्याय का उल्लंघन कर रहा था । इस प्रकार भारतवर्ष में सर्वत्र अनीति का साम्राज्य फैला हुआ था । ऐसी विषम परिस्थितियों में
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