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________________ ३२० भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण उनके निर्णय को उपदेश से बदलना उचित नहीं समझा उन्हे शिक्षा देने के लिए उन्होंने एक उपाय खोज निकाला । श्रीकृष्ण महल में जाकर एक तूम्बी लेकर आए और उसे युधिष्ठिर को देते हुए कहा - धर्मराज ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । मैं भी तुम्हारे साथ चलता किन्तु इतना व्यस्त हूँ कि समय नहीं है । आप मेरी ओर से यह तुम्बी ले जाए और तीर्थों के पवित्र पानी में अपने साथ इसको भी स्नान करा दें युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकृति दी और तुम्बी लेकर वे वहां से रवाना हो गए । तीर्थयात्रा कर वे लौटे, तथा तूम्बी लाकर उन्होंने श्रीकृष्ण के हाथ में थमा दी। और कहा - प्रत्येक तीर्थ में इसे स्नान कराया है । हमने एक बार स्नान किया तो तूम्बी को अनेक बार स्नान कराया । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धन्यवाद दिया, और उसी समय तुम्बी को पिसवा कर उसका चूर्ण बनवाया और उस चूर्ण को अपने हाथों से सभी सभासदों को और पाण्डवों को दिया और कहा - यह तुम्बी समस्त तीर्थों में स्नानकर आयी है अतः यह परम पवित्र होगई है । सभी व्यक्तियों ने तुम्बी का चूर्ण सिर पर लगाकर मुंह में डाल लिया, पर चूर्ण इतना कटु था कि सभी थू-थू करने लगे । कृष्ण ने बनावटी आश्चर्य दिखाते हुए कहा- क्या इतने तीर्थों में स्नान करके भी यह तुम्बी मीठी नहीं हुई ? फिर आत्मा पर लगे हुए पाप तीर्थ यात्रा करने से किस प्रकार धुल सके होंगे ? उन्होंने मुस्कराते हुए युधिष्ठिर को कहा - पाण्डुपुत्र ! अपनी जिस आत्मा रूपी नदी में संयम रूप जल, सत्य रूप प्रवाह, दयारूप तरंगे, और शील रूपी कगार है उसी में अवगाहन करो। बाह्य नदियों के जल से कभी भी अन्तरात्मा शुद्ध और पवित्र नहीं हो सकता । युधिष्ठिर आदि को अपनी भूल ज्ञात हो गई, उन्हें द्रव्य तीर्थ यात्रा की निरर्थकता भी मालूम हो गई । ४. आत्मानदी सत्यावहा तत्राभिषेकं Jain Education International संयमतोयपूर्णा 1 शीलतटादयोमिः । कुरु पाण्डुपुत्र ! न वारिणा शुध्यति चान्तरात्मा ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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