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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण चोर ने कहा- मुझे युद्ध में जोतकर तुम अपना घोड़ा ले सकते हो।
कृष्ण—मैं रथ में बैठा हूँ, तू भो रथ में बैठकर युद्ध कर।
चोर-मुझे रथ की आवश्यकता नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ पूतियुद्ध करना चाहता हूँ।
कृष्ण-मैं नीच युद्ध नहीं करता, तू मेरा घोड़ा ले जा सकता है।
ज्योंही श्रीकृष्ण की यह बात सुनी, देव प्रसन्न हो उठा। उसने अपना रूप प्रकट कर कहा-कृष्ण ! वस्तुतः तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ । देवदर्शन व्यर्थ न हो, इसलिए बोलो क्या चाहते हो?
कृष्ण ने कहा-देव ! मुझे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, पर इन दिनों में द्वारिकावासी रोग से संत्रस्त हैं अतः ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे रोग का उपशमन हो जाए।
देव ने एक दिव्य भेरी देते हुए कहा- इस भेरी को छह-छह मास से बजाइयेगा, जिससे पूर्व रोग नष्ट हो जायेगा और भविष्य में छह माह तक कोई रोग न होगा । देव अपने स्थान चला गया। __श्रीकृष्ण ने ज्योंही भेरी को बजाया, त्यों ही उसके शब्द के प्रभाव से द्वारिकावासी रोगमुक्त हो गये। ___ एक श्रेष्ठी ने भेरी की महिमा सुनी। वह दाह-ज्वर से संत्रस्त था। वह द्वारिका आया। पर पहले हो भेरी बज चुकी थी। लोगों ने कहा-छह माह तक अब उसकी प्रतीक्षा करनी होगी। सेठ सीधा ही भेरी-रक्षक के पास पहँचा। एक लाख दीनार उसके हाथ में थमाते हुए कहा, जरा भेरी का टुकड़ा ही दे दो। पहले तो भेरी रक्षक इन्कार होता रहा, पर पैसे के लोभ से वह पिघल गया। उसने जरा सा टुकड़ा काटकर उसे दे दिया। ज्योंही धनिक ने उसे घोट कर पिया त्योंही वह रोगमुक्त हो गया। भेरी रक्षक ने उसकी जगह चन्दन की लकड़ी लगा दी। इस प्रकार धन के लोभ से वह भेरी को काट-काट कर देने लगा। एक दिन सम्पूर्ण भेरी ही चन्दन की हो गई।
छह माह के पश्चात् श्रीकृष्ण ने उसे बजाने का आदेश दिया और वह बजाई गई तो उसका शब्द ही नहीं हुआ। कृष्ण ने उसे
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