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जीवन के विविध प्रसंग
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देखा, सारा रहस्य उन्हें ज्ञात हो गया। रिश्वतखोर भेरी रक्षक को श्रीकृष्ण ने प्राण दण्ड दिया, और अष्टम तप कर पुनः देव से वह चमत्कारी भेरी प्राप्त की । '
२ | आत्मप्रशंसा :
महाभारत का युद्ध चल रहा था । वीर अर्जुन के धनुष की टंकार चारों ओर गूंज रही थी । अपने पौरुष के अभिमान में वीर अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा की कि जो मेरे गाण्डीव धनुष का अपमान करेगा, उसे मैं जीवित न छोडूंगा ।
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उधर युधिष्ठिर और कर्ण में भयंकर युद्ध चल रहा था । युधिष्ठिर चारों ओर से शत्रुओं से घिर गये । कर्ण उनको एक ही बाण में परलोक पहुँचा सकता था, पर उसने अपनी उदारता बतलाते हुए कहा - युधिष्ठिर ! मैं आज तुम्हें परलोक पहुँचा देता, किन्तु मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि कुन्ती के पुत्रों में से अर्जुन के अतिरिक्त किसी को भी नहीं मारुंगा । वह प्रतिज्ञा ही आज मुझे तुम्हें मारने से रोक रही है । जाओ मैं तुम्हें प्राण दान देता हूँ ।
युधिष्ठिर लज्जा से पीछे लौटे । अर्जुन कौरव सेना में प्रलय का दृश्य उपस्थित कर अत्यधिक प्रसन्न हो रहा था । युधिष्ठिर ने जब अर्जुन को देखा तब अपने हृदय की अपार वेदना को व्यक्त करते हुए कहा - अर्जुन ! धिक्कार है तुम्हारे इस गाण्डीव को, जिसके होते हुए भी कर्ण ने मेरा घोर अपमान किया है ।
गाण्डीव को धिक्कार की बात सुनते ही अर्जुन का खून खौलने लगा । वह क्रोध से लाल हो गया । उसे भान ही न रहा कि मैं अपने पितृतुल्य बड़े भाई के सामने हूँ । उसके दिल और दिमाग में एक ही बात घूम रही थी— मेरे गाण्डीव का अपमान ! कोई भी क्यों न
१. ( क ) त्रिषिष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व ८,
(ख) आवश्यक चूर्णि
(ग) नन्दी सूत्र वृत्ति मलयगिरि
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सर्ग १०
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