SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण ____ जो तीर्थ का कर्ता या निर्माता होता है वह तीर्थकर कहलाता है। जैन परिभाषा के अनुसार तीर्थ शब्द का अर्थ-धर्मशासन है । जो संसार समुद्र से पार करने वाले धर्म तीर्थ की संस्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये धर्म हैं, इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका हैं। इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा गया है। इस तीर्थ की जो स्थापना करते हैं उन विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहते हैं। संस्कृत साहित्य में तीर्थ शब्द 'घाट' के लिए भी व्यवहृत हुआ है । जो घाट के निर्माता हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। सरिता को पार करने के लिए घाट की कितनी उपयोगिता है, यह प्रत्येक अनुभवी व्यक्ति जानता है। संसार रूपी एक महान् नदी है। उसमें कहीं पर क्रोध के मगर मच्छ मुह फाड़े हुए हैं। कहीं पर मान की मछलियाँ उछल रही हैं। कहीं पर माया के जहरीले सांप फुत्कार मार रहे हैं तो कहीं पर लोभ के भंवर हैं। इन सभी को पार करना कठिन है। साधारण साधक विकारों के भंवर में फंस जाते हैं। कषाय के मगर उन्हें निगल जाते हैं। अनन्त दया के अवतार तीर्थंकर प्रभु ने साधकों की सुविधा के लिए धर्म का घाट बनाया, अणुव्रत और महाव्रतों की निश्चित योजना प्रस्तुत की। जिससे प्रत्येक साधक इस संसार रूपी भयंकर नदी को सहज ही पार कर सकता है। तीर्थ का एक अर्थ-पुल भी है। चाहे जितनी बड़ी से बड़ी नदी क्यों न हो, यदि उस पर पुल है, तो निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। तीर्थंकरों ने संसार रूपी नदी को पार करने के लिए धर्म शासन अथवा साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी संघ-पुल का निर्माण किया। आप अपनी शक्ति व भक्ति के अनुसार इस पूल पर चढ़कर संसार को पार कर सकते हैं। धार्मिक साधना के द्वारा अपने जीवन को पावन बना सकते हैं। तीर्थंकरों के शासन काल में हजारों लाखों व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र बनाकर मुक्त होते हैं। प्रश्न हो सकता है कि प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में भगवान ऋषभदेव ने सर्वप्रथम तीर्थ की संस्थापना की अतः उन्हें तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy