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________________ | तीर्थंकर और वासुदेव 'तीर्थंकर' शब्द जैन साहित्य का मुख्य पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द कब और किस समय प्रचलित हुआ, यह कहना अत्यधिक कठिन है। वर्तमान इतिहास से इसकी आदि नहीं दी जा सकती। निस्सन्देह यह शब्द उपलब्ध इतिहास से भी बहुत पहले प्राग ऐतिहासिक काल में भी प्रचलित था। जैन परम्परा में इस शब्द का प्राधान्य रहने के कारण बौद्ध साहित्य में भी इसका प्रयोग किया गया है । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर 'तीर्थंकर' शब्द व्यवहृत हुआ है।' सामफल सुत्त में छह तीर्थंकरों का उल्लेख किया है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य की तरह मुख्य रूप से यह शब्द वहाँ प्रचलित नहीं रहा है। कुछ ही स्थलों पर इसका उल्लेख हुआ है, किन्तु जैन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में हुआ है। तीर्थंकर जैन धर्म-संघ का पिता है, सर्वे-सा है। जैन साहित्य में खूब ही विस्तार से तीर्थंकर का महत्त्व उट्टङ्कित किया गया है। आगम साहित्य तक में तीर्थंकर का महत्त्व प्रतिपादित है। चतुर्विंशतिस्तव और शक्रस्तव में तीर्थंकर के गुणों का जो उत्कीर्तन किया गया है उसे पढ़कर साधक का हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है। १. देखिए बौद्ध साहित्य का लंकावतार-सूत्र २. दीघनिकाय सामञफलसुत्त पृ० १६-२२, हिन्दी अनुवाद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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