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तीर्थङ्कर और वासुदेव कहना चाहिए, परन्तु उनके पश्चाद्वर्ती अन्य तेवीस महापुरुषों को तीर्थकर क्यों कहा जाय ? __ कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि धर्म की व्यवस्था जैसी एक तीर्थंकर करते हैं, वैसी ही व्यवस्था दूसरे तीर्थंकर भी करते हैं, अतः एक ऋषभदेव को ही तीर्थकर मानना चाहिए अन्य को नहीं।
उल्लिखित प्रश्नों के उत्तर में निवेदन है कि एक तीर्थंकर ने जैसा निरूपण किया, सर्वथा वैसा ही निरूपण दुसरा तीर्थंकर नहीं करता। यदि वह पूरी तरह एकसदृश ही कथन करता है तो तीर्थंकर नहीं है। जिसका मार्ग देश काल पात्र आदि की भिन्नता के कारण पूर्व तीर्थङ्कर से भिन्न होता है-सर्वथा एक सदृश नहीं होता वही तीर्थङ्कर कहलाता है। जब पुराने घाट ढह जाते हैं, वे विकृत अथवा अनुपयुक्त हो जाते हैं, तब नवीन घाट निर्माण किये जाते हैं। जब धार्मिक विधि-विधानों में विकृति आ जाती है, तब तीर्थङ्कर विकृतियों को नष्ट कर अपनी दृष्टि से पुन: धार्मिक विधानों का निर्माण करते हैं। तीर्थङ्करों का शासन-भेद इस बात का ज्वलंत प्रमाण है। इस सम्बन्ध में जिज्ञासु पाठकों को लेखक का 'भगवान् पाश्र्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन' ग्रन्थ का उपक्रम अवश्य देखना चाहिए। तीर्थङ्कर अवतार नहीं :
एक बात स्मरण रखनी चाहिए कि जैन धर्म ने तीर्थङ्कर को ईश्वर का अवतार या अंश नहीं माना है और न दैवी सष्टि का अजीब प्राणी ही स्वीकार किया है। उसका यह स्पष्ट मन्तव्य है कि तीर्थङ्कर का जीव एक दिन हमारी तरह ही वासना के दल-दल में फंसा हुआ था। पापरूपी पंक से लिप्त था। कषाय की कालिमा से कलुषित था, मोह की मदिरा से बेहोश था। आधि, व्याधि, और उपाधियों से संत्रस्त था । हेय, ज्ञय और उपादेय का उसे तनिक भी ज्ञान नहीं था। वैराग्य से विमुख रह कर वह विकारों को अपनाता था, उपासना को छोड़कर वासना का दास बना हुआ था । त्याग के बदले वह राग में फंसा हुआ था। भौतिक व इन्द्रियजन्य सुखों को
३. देखिए पृष्ठ ३-२५
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