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भगवान अरष्टनेमि और श्रीकृष्ण छिपी न रह सकी । जब दुर्योधन ने उनको भोजन के लिए निमन्त्रण दिया तब श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए दुर्योधन की ओर देखकर कहा"हे कौरव ! में काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट या लोभ वश होकर धर्म को नहीं त्याग सकता । लोग यों तो प्रीति से और विपत्तिग्रस्त होकर दूसरे का अन्न खाते हैं। पर तुमने प्रीति से मुझे भोजन का निमन्त्रण नहीं दिया है और न मुझ पर कोई आपत्ति आई है। फिर मैं तुम्हारे यहाँ क्यों भोजन करू ?२3 मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम किसी दुष्ट विचार से भोजन के लिए अनुरोध कर रहे हो इसलिए मैं तुम्हारे दूषित अन्न को न खाऊँगा। मैं केवल विदुर जी का अन्न ग्रहण करना ही उचित और श्रेयस्कर समझता हूँ ।२४ धृतराष्ट्र को समझाना :
दूसरे दिन श्रीकृष्ण कौरवों की सभा में गये । धृतराष्ट्र की ओर देखकर उन्होंने कहा-हे भरतकुल दीपक ! मैं इस उद्देश्य से आपके पास आया है कि पाण्डवों और कौरवों में परस्पर सन्धि हो जाय और वीर पुरुषों का विनाश न हो ।२५ आपको और कोई हितोपदेश देने की मुझे इच्छा नहीं है, क्योंकि जानने योग्य सभी बातें आप
२२. महाभारत उद्योग पर्व, अ० ८८ श्लोक १६ से २३, पृ० ३६०८
३६०६, सचित्र महाभारत । २३. नाऽहं कामान्न संरम्भान्न द्वेषान्नाऽर्थकारणात् ।
न हेतुवादाल्लोभाद्वा धर्मं जह्यां कथञ्चन । सम्प्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपभोज्यनि वा पुनः। न च सम्प्रीयसे राजन्न चैवाऽऽपद्गता वयम् ।।
वहीं-उद्योगपर्व, अ० २६ श्लोक २४-२५ २४. सर्वमेतन्न भोक्तव्यमन्नं दुष्टाभिसंहितम् । क्षत्तु रेकस्य भोक्तव्यमिति मे धीयते मतिः ।।
- वहीं, उद्योगपर्व अ० २६ श्लोक ३२ २५. कुरूणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत । अप्रणाशेन वीराणामेतद्याचितुमागतः ॥
-वहीं० उद्योगपर्व अ० ६५, श्लोक ३
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